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वह व्यक्ति चिड़चिड़ा बन जाता है। उसकी चिन्तन और स्मृति की शक्ति कम हो जाएगी। थायरोक्शिन की मात्रा अधिक है तो तत्काल उत्तेजना आ जाएगी, बात-बात पर आवेश आ जाएगा। ऐसा होना व्यक्तित्व निर्माण में बाधा है पर उसके पीछे जो कारक तत्त्व है, वह है ग्रन्थितंत्र । उस पर ध्यान न दें तो व्यक्तित्व का निर्माण और परिष्कार नहीं किया जा सकता। जब-जब ऐसी स्थिति आए, ध्यान देना चाहिए-कहीं ग्रन्थितंत्र में विकृति तो नहीं आयी है ? उसके स्राव में कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं हुई है ? ऐसे हारमोन्स तो काम नहीं कर रहे हैं, जो व्यक्तित्व को बिगाड़ रहे हैं। जैसे ही शरीर भारी होता है। हम थर्मामीटर लगाकर देखते हैं कि शरीर कहीं ज्वरग्रस्त तो नहीं हो गया है ? हम शरीर के बाहरी लक्षणों की जांच तो कराते हैं, किन्तु ग्रन्थितंत्र का, जिसका हमारे मन पर, स्मृति और चिन्तन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है, जांच कराने की कोई जरूरत नहीं समझते। इससे व्यक्तित्व का निर्माण और परिष्कार प्रभावित होता है। नाड़ीतंत्र और व्यक्तित्व दूसरा तत्त्व है नाड़ीतंत्र । हमारे प्राणतंत्र के तीन प्रवाह हैं, जिन्हें प्राचीन ग्रन्थों में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाम दिया गया है। आज की वैज्ञानिक भाषा में सिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम, पेरा सिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम और सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम कहा गया है । अमुक प्रकार की वृत्ति काम कर रही है या अमुक प्रकार का व्यवहार हो रहा है ? हम सोचें, यह क्यों हो रहा है ? कहीं नाड़ीतंत्र में तो कोई गड़बड़ नहीं है ? एक व्यक्ति बहुत आक्रामक बन रहा है, एक बच्चा हर बात पर आक्रामक मुद्रा में आ जाता है, कहीं सिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम तो इसके लिए उत्तरदायी नहीं है। एक व्यक्ति हीनभावना से हमेशा ग्रस्त रहता है, प्रतिक्षण भयभीत और शंकाशील रहता है। यह जांच करानी जरूरी है कि कहीं पेरासिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम ज्यादा सक्रिय तो नहीं हो गया है। शारीरिक सौन्दर्य शरीर की सुन्दरता और सुलक्षणता भी व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। जयपुर के एक वैद्य थे नन्दकिशोर जी। वे प्रसिद्ध दादूपंथी स्वामी लच्छीराम
व्यक्तित्व का निर्माण : ६५
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