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संकल्प और सिद्धि
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि साधु-समाज और गृहस्थ- समाज - दोनों में प्रशिक्षण की विधि का प्रयोग आज नहीं हो रहा है । संकल्प और सिद्धि-दो शब्द बहुत पुराने हैं । एक संकल्प, एक लक्ष्य बना किन्तु वह संकल्प ही रहता है तो सिद्ध नहीं होता । सिद्धि तब मेलेगी, जब उसे प्रयोग की आंच पर पकाया जाएगा। आंच तेज होगी तो जल्दी पकेगा, धीमी आंच होगी तो देर से पकेगा। यह प्रक्रिया का भेद हे लेकिन पकाए बिना, अहिंसा का संकल्प हो या सत्य का संकल्प, फल नहीं देता ।
आहार और हिंसा
हम प्रशिक्षण की विधि पर विशेष ध्यान केन्द्रित करें । अहिंसा के प्रशिक्षण का पहला अंग है आहार का प्रशिक्षण । आहार और हिंसा में गहरा संबंध है । प्रश्न है - आहार कैसा है ? वह सात्विक है या तामसिक ? यदि आहार में मद्य-मांस का प्रयोग होता है तो वह हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा देगा । हम ऐतिहासिक दृष्टि से देखें । भारतीय समाज को लें या बाहर के समाज को लें। जिन लोगों को लड़ाई में ज्यादा रहना पड़ा, जो सुरक्षा के मोर्चों पर रहे, लड़ना ही जिनका पेशा बन गया, उन क्षत्रियों के लिए मद्य और मांस की खुली छूट समाज ने दी । शायद बहुत कम क्षत्रिय ऐसे हुए हैं, जिन्होंने इनका प्रयोग न किया हो । एक प्रकार से यह क्षत्रियों का धर्म बन गया । ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र - इनके लिए मांसाहार कोई विकल्प नहीं था । यह अलग बात है कि वे खाने लग गए, किन्तु उनके लिए वह कोई विकल्प नहीं था । क्षत्रियों के लिए आहार का एक विकल्प मांस बन गया। जब लड़ाई में ही रहना है तो शराब और मांस का सहारा आवश्यक है । ऐसी स्थिति में क्रूर बनना पड़ेगा, दया और संवेदनशीलता खत्म करनी पड़ेगी । संवेदनहीन हुए बिना हिंसा हो ही नहीं सकती । वर्तमान में आतंकवाद के प्रशिक्षण में प्रशिक्षुओं को संवेदनहीन बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है। कुछ देशों में संवेदनहीनता के लिए मनोरंजन होते हैं । अरब के एक देश में ऐसा ही एक संवेदनहीन खेल होता है, जिसमें ऊंट की पीठ पर एक बच्चे को बांध दिया
अहिंसा प्रशिक्षण : एक सार्वभौम आयाम : ४१
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