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ट्रेनिंग बिल्कुल दूसरी बात है । शिक्षा और प्रशिक्षा में बहुत अन्तर है । शिक्षण में तो पाठ याद कर लेते हैं या थोड़ा अर्थ समझ लेते हैं और मान लेते हैं कि बस काम हो गया । किन्तु प्रशिक्षण में शब्द कोई बहुत काम नहीं देता । शब्द प्राथमिक रूप में थोड़ी-सी सहायता करता है, किन्तु जब तक इस शब्द का जो अर्थ है, वह हमारा अपना न बन जाए, तादात्म्य न हो जाए, तब तक वह आचरण नहीं बन सकता । शरीर को पोषण तब मिलेगा, जब खाया-पीया पच कर रक्त और मांस में बदल जाएगा। यह है प्रशिक्षण की प्रक्रिया | आयुर्वेद में सात धातुओं में अंतिम धातु मानी गई है ओज । प्रशिक्षण में अंतिम धातु है संस्कार का निर्माण । जब संस्कार - निर्माण हो गया, आदत बन गई, फिर वह अलग नहीं होती । संस्कार निर्माण हुआ और हमारा कार्य संपन्न हो गया ।
संदर्भ आचार-संहिता का
अणुव्रत की आचारसंहिता का सन्दर्भ लें - 'मैं पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक रहूंगा।' व्यक्ति ने इस पाठ को पढ़ लिया, इसका अर्थ भी समझ लिया । पर्यावरण का प्रदूषण क्या है ? इसे जान लिया। इसमें श्रद्धा भी पैदा हो गई । इसका तात्पर्य है- हमने भूमि को उर्वरा बना लिया। अब बीज बोने लायक भूमि बन गई। इसके बाद अनुप्रेक्षा का प्रयोग अपेक्षित है। मैं पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक रहूंगा'इस शब्दावली को नौ बार दोहराएं। पहले बोलकर नौ बार दोहराएं, फिर होठों में नौ बार दोहराएं और फिर मन में नौ बार दोहराएं, इसके बाद इस वाक्य के साथ एकाकार बन जाएं, अपने में समाहित कर लें । इसे कायोत्सर्ग की मुद्रा में दोहराएं, फिर इसके साथ ध्यान का प्रयोग करें। रंग के ध्यान का प्रयोग करें, अनुचिन्तन करें । अनुप्रेक्षा के जितने सारे चरण हैं, उनमें से गुजरें ।' क्या यह काम एक दिन में हो जाएगा ? कभी संभव नहीं है। दो दिन करें, चार दिन करें, दस दिन करें । जब तक यह न लगे- अब यह मेरा संस्कार बन गया है, तब तक अनुप्रेक्षा का प्रयोग करते रहें । यह मूल्यांकन व्यक्ति स्वयं कर सकता है कि वह मेरा संस्कार बना या नहीं बना ।
४० : नया मानव : नया विश्व
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