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प्रशिक्षण की प्रक्रिया। बहुत लोग अणुव्रती बनते हैं, अणुव्रतों को स्वीकार करते हैं, किन्तु पूरी प्रक्रिया नहीं करते। जब तक पूरी प्रक्रिया नहीं होती, तब तक उसका पूरा फल नहीं आता। एक व्यक्ति रोटी खाने बैठा। भूख है पांच रोटी की। वह आधी रोटी खाकर उठ गया। क्या शरीर को पूरा पोषण मिलेगा ? पोषण तब मिलेगा, जब भूख के समानान्तर भोजन करेंगे। प्यास है एक लोटे पानी की। एक चूंट पानी पिया। क्या पानी पीने का फल आएगा ? प्यास बुझेगी ? दवा का कोर्स है दस दिन का और दवा ली मात्र एक दिन तो दवा का परिणाम नहीं आएगा। ठीक यही प्रक्रिया आज धर्म के लोग अपना रहे हैं। धर्म करते हैं, किन्तु अधूरा करते हैं। यह मानते हैं-पाठ पढ़ लिया और समझ लिया, धर्म पूरा हो गया। एक व्यक्ति अणुव्रती बनता है। वह आचारसंहिता का पाठ भी कर लेता है
और संकल्प भी कर लेता है-मैं किसी भी निरपराध प्राणी का संकल्पपूर्वक वध नहीं करूंगा। वस्तुतः यह पर्याप्त नहीं है। जब अहिंसा के प्रशिक्षण की दिशा में हम प्रस्थान करेंगे तो समझ में आएगा कि यह बिल्कुल अधूरी बात है। जब इस संकल्प को अनुप्रेक्षा की आंच पर पकाएंगे, तब संकल्प पकेगा। मैं किसी निरपराध प्राणी का संकल्पपूर्वक वध नहीं करूंगा, इस संकल्प को एक सप्ताह, दो सप्ताह, चार सप्ताह तक दोहराएं और तब तक दोहराएं जब तक यह वाक्य आपका संस्कार न बन जाए। जब यह वाक्य संस्कार वन जाए तो फिर इसे दोहराने की जरूरत नहीं होगी। अंतर है शिक्षा और प्रशिक्षा में हम संस्कारों का निर्माण करना चाहते हैं। एक बार किसी से कह देते हैं-झूठ मत बोलो, बुराई में मत जाओ और हम यह मान लेते हैं-उसे अच्छी शिक्षा दे दी। यह भ्रम है। पांच-पांच हाथ के हजार कुएं खोद लें तो पानी नहीं निकलेगा। पानी निकालना है तो उसे एक स्थान पर ही वहां तक खोदना होगा, जब तक पानी न निकल आए। पानी की पहली, दूसरी, तीसरी और चौधी परत तक जाते हैं, तब पानी का अच्छा स्रोत निकलता है।
हम लोग प्रशिक्षण को अभी जानते नहीं हैं। टीचिंग एक बात है और
अहिंसा प्रशिक्षण : एक सार्वभौम आयाम : ३६
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