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रिश्वत लेनी है तो लोगों के बीच में नहीं ली जाती। घर में अकेले पहुंच जाने पर स्वीकार कर ली जाती है। उसमें कानून कोई बाधा नहीं बनता। कानून तब बाधा बनता है, जब दूसरा कोई देख रहा हो। व्रत वह होता है, जहां कोई देखता है तो व्यक्ति जागरूक रहता है और नहीं देखता है तो ज्यादा जागरूक बनता है। वह उस समय सोचता है-दूसरा कोई नहीं देख रहा है, लेकिन आत्मा तो देख रही है, परमात्मा तो देख रहा है। उस समय जागरूकता ज्यादा बढ़ जाती है। राशनिंग प्रणाली लागू होते ही एक ही रात में सारा खाद्यान्न न जाने कहां गायब हो जाता है ? इस सन्दर्भ में सरदारशहर के एक ब्यक्ति का उल्लेख करना चाहूंगा। चीनी का कण्ट्रोल हुआ। सेठ सुमेरमलजी दूगड़ के यहां चीनी की बोरियां भरी पड़ी थीं। उन्होंने पूरे परिवार के साथ चाय बिना चीनी के ली, किन्तु एक किलो भी चीनी उन बोरियों से नहीं निकाली। कौन देखने वाला था ? कौन पकड़ने वाला था ? चीनी के बोरे घर में पड़े थे। यह है व्रतनिष्ठा का निदर्शन।
विकास की अवधारणा यह कानून नहीं, व्रत है। व्रत हमारी सूक्ष्म चेतना का स्पर्श करता है। जो सूक्ष्म चेतना का स्पर्श करता है, वह व्रत है और जो स्थूल चेतना का स्पर्श करता है, वह कानून है। हमने शायद कानून पर ज्यादा भरोसा कर रखा है, व्रत पर हमारी श्रद्धा कम है। अगर कानून के स्थान पर व्रत भी चले, दोनों एक साथ चलें. तो स्थिति को बदला जा सकता है। इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी अवधारणा बदलनी होगी। नए मनुष्य की कल्पना करेंगे तो विकास की अवधारणा भी बदलनी पड़ेगी। आज विकास भी स्थूल भाषा में चल रहा है। विकसित राष्ट्र या समाज वह है, जिसके नागरिकों के पास खाने-पीने की प्रचुर सामग्री है, अच्छे मकान, कार, रेडियो और टी.वी. हैं, सुख-सुविधा के प्रभूत साधन हैं। इस आधार पर हमने विकास की अवधारणा को परिभाषित कर दिया, किन्तु इसके साथ यह नहीं जोड़ा-जिसका मस्तिष्क विकसित है, वह विकसित है। साधन-संपन्नता और आर्थिक संपन्नता होने पर भी भ्रष्टाचार चलता है। आप सब जानते हैं कि कब किस राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप का सामना करना पड़ा है। कुछ राष्ट्रों
३४ : नया मानव : नया विश्व
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