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नए मनुष्य का जन्म
विकास की प्रक्रिया निरंतर गतिमान है। केवल विकास की ही नहीं, ह्रास की प्रक्रिया भी चलती रही है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का कालचक्र चलता रहता है। हर युग में मनुष्य ने कल्पना की-विकास हो, आदमी अधिक अच्छा बने, समाज और राष्ट्र अच्छा बने। विकास की कामना की है और उसके लिए प्रयत्न भी किया है। इतिहास को देखें-ढाई हजार वर्ष, तीन हजार वर्ष, पांच हजार वर्ष अतीत में जाएं तो पता चलेगा-वर्तमान को और भी अच्छा बनाने का प्रयत्न कृष्ण ने किया, महावीर ने किया, बुद्ध ने किया, अनेक मनीषी विद्वानों और आचार्यों ने किया। सब चाहते हैं कि आदमी और अच्छा बने। वर्तमान दशकों में वैज्ञानिक जगत् में भी विकास की प्रक्रिया का चिन्तन चला है। उसी का प्रतीक साहित्य है डाफ्लर का 'थर्ड वेव', काप्लर का 'ताओ फिजिक्स' । ये पुस्तकें इस ओर इंगित करती हैं कि कुछ नया होना चाहिए।
ज्ञाता-प्रधान मनुष्य की कल्पना आईन्स्टीन जैसे वैज्ञानिक ने मानव के संदर्भ में एक कल्पना की-आदमी ज्ञाताप्रधान बने । वह अब तक ज्ञेयप्रधान रहा है, अब ज्ञाताप्रधान को प्रमुखता मिलनी चाहिए और आदमी को ज्ञाताप्रधान होना चाहिए। आईन्स्टीन से पूछा गया-'आगे आप क्या होना चाहते हैं ? उन्होंने उत्तर दिया-'इस जन्म में मैंने ज्ञेय (आब्जेक्ट) पर ज्यादा काम किया है, अब मैं चाहता हूँ कि अगले जन्म में ज्ञाता (सब्जेक्ट) पर ज्यादा काम करूं और उस ज्ञाता को जानने
२६ : नया मानव : नया विश्व
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