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लड़का बीमार हो गया । वैद्य को दिखाया । वैद्य ने कहा- इस बीमारी में मीठी चीज खाने को मत देना, अन्यथा यह असाध्य बीमारी में चला जाएगा। सादा भोजन दो । साथ में दवा दो लेकिन मीठी वस्तु इसे भूल कर भी मत देना। मां ने परामर्श स्वीकार कर लिया। दो दिन बीते । लड्डू घर में आए। बच्चे को मिठाई खाने की सहज आदत थी । मन ललचा गया। मां से लड्डू मांगा। एक-दो बार अनसुना कर दिया । वह बार-बार मांग करने लगा। मां की प्रियता जाग गई। उसने लड्डू खाने को दे दिया । लड्डू खाते ही बच्चे की हालत बिगड़ गई । वैद्य को बुलाया । वैद्य जान गया । उसने पूछा-मिठाई खिलाई ? संकोचपूर्वक मां बोली- हां । वैद्य ने कहा- “बीमारी अब मेरे उपचार से बाहर जा चुकी है। मैं कुछ नहीं कर सकता । वह मिठाई मृत्यु का कारण बन गई।”
हित की चिन्ता करें
प्रिय की चिन्ता थी, किन्तु हित की चिन्ता नहीं थी । अगर हित की चिन्ता होती तो प्रियता गौण हो जाती । आज परिवारों में प्रिय की चिन्ता बहुत बढ़ गई है किन्तु हित की चिन्ता नहीं हो रही है । यही कारण है - अनुशासन क्षीण हो रहा है, एकरूपता नहीं आ पा रही है, सामूहिक भावना का विकास नहीं हो पा रहा है । इन सबके बिना संयुक्त परिवार का कोई आधार या पृष्ठभूमि ही नहीं बनती। परिवार का मुखिया इस सचाई को समझे - वह केवल अपनी संतान और अपने परिवार के प्रिय की चिन्ता ही न करे, हित की चिन्ता भी करे ।
परिवार के संदर्भ में प्रबंधन की यह संक्षिप्त मीमांसा है । यदि प्रबंधन के वर्तमान सूत्रों के साथ भारतीय संस्कृति के प्राचीन प्रबंधन सूत्रों को ध्यान में रखें तो परिवार के प्रबंधन की नींव अधिक मजबूत हो सकती है, उसका सम्यक् विकास संभव बन सकता है ।
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पारिवारिक सामंजस्य : २५
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