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संरक्षण करता है, सुरक्षा देता है, वास्तव में वही संगठन का शिरोमणि होता है ।
प्रमोद-भाव
प्रबन्धन का दूसरा सूत्र है प्रमोद भावना । वह संगठन मजबूत बनता है, जहां एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के गुणों को स्वीकार करता है, महत्त्व देता है। जहां छीना-झपटी होती है, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रतिस्पर्धा होती है, वहां मजबूत संगठन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कल्पना करें - एक परिवार में पांच भाई हैं, पांच बहुए हैं। वे एक-दूसरे को हीन बताने का प्रयत्न करेंगे, एक-दूसरे की निन्दा और चुगली करेंगे तो क्या होगा ? क्या ऐसा परिवार कभी अच्छा हो सकता है ?
करुणा
प्रबन्धन का तीसरा सूत्र है - करुणा की भावना । जो समस्या पैदा हो, उसका प्रतिकार करना । आज करुणा का अर्थ भी बहुत छोटा कर दिया गया है । करुणा का अर्थ यह नहीं है कि किसी व्यक्ति को प्यास लगी तो उसे पानी पिला दिया और करुणा हो गई । करुणा का अर्थ है - पीड़ा आए, समस्या आए तो उसका समाधान खोजना और क्रूरता की वृत्ति का विसर्जन
करना ।
उपेक्षा
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प्रबंधन का चौथा सूत्र है - उपेक्षा । सब लोग समान नहीं होते। किसी संगठन में चाहे पांच आदमी हैं या दस, सब समान नहीं होते। उनमें विषमता रहती है । हमारी एक समस्या है और वह है संवेगों का तारतम्य । सबके संवेग समान नहीं होते । संवेग अलग-अलग प्रकार के होते हैं । मनोविज्ञान में अनेक मौलिक मनोवृत्तियां मानी गई हैं और उन वृत्तियों के कुछ उद्दीपक संवेग माने हैं । युयुत्सा की एक मनोवृत्ति है, उसका संवेग है क्रोध । पलायन की एक मनोवृत्ति है, उसका संवेग है भय । न मनोवृत्तियों का विकास सबका समान होता है और संवेग समान होते हैं । तारतम्य की स्थिति में उनका
गए
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नया मानव : नया विश्व
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