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नहीं करूंगा, अनावश्यक हिंसा नहीं करूंगा। यह एक बहुत बड़ा संकल्प है। जीवन-यात्रा को चलाने के लिए थोड़ी-बहुत हिंसा अनिवार्य हो सकती है किन्तु यदि हिंसा करने का संकल्प टूट जाए और अहिंसा का संकल्प जाग जाए तो संबंधों की मधुरता का एक मजबूत आधार बन जाता है।
सूत्र आत्मतुला का चेतना को जागृत करने के लिए महावीर का सूत्र है-आयतुले पयासु-सब जीवों को अपनी तुला से तोलो । व्यास का सूत्र है-आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत् । जो काम अपने लिए प्रतिकूल है, वह हम दूसरों के लिए न करें। इन सूत्रों का प्रायोगिक स्तर पर अभ्यास करने पर करुणा की चेतना जागती है। कष्ट यदि हमें इष्ट नहीं है तो सामने वाले को भी इष्ट नहीं हैं। मैं दूसरे की रोटी छीनता हूं। यदि उसी प्रकार वह मेरी रोटी को छीने तो कैसे लगेगा ? तराजू के दोनों पलड़ों पर बैठकर चिन्तन करें तो वृत्ति का काफी परिष्कार होता है, अहं सीमित होता है। यदि मैं अकेला होता तो मेरा अहं विस्तृत बन जाता और सारे संसार पर आधिपत्य जमाने का अधिकार मिल जाता। किन्तु अहं की एक सीमा है-मैं हूं और मेरे जैसा दूसरा भी है-जब इस चिन्तन पर जाएंगे तो अपने आप अहं एक सीमा में रहेगा।
प्रश्न है परिष्कार का करुणा और संवेदनशीलता की चेतना को जगाने के लिए करुणा की अनुप्रेक्षा का उपयोग बहुत महत्त्वपूर्ण है। परिवर्तन के लिए अभ्यास जरूरी है। यह हमारी वैयक्तिकता है, आंतरिक परिवर्तन है। हम उसे गौण न करें, केवल सामाजिक और परिस्थितिवादी न बनें । हम परिष्कार के लिए समाजीकरण का बहत उपयोग नहीं कर सकते। जहां व्यवस्था का प्रश्न है, वहां समाजीकरण का उपयोग होता है किन्तु जहां परिष्कार का प्रश्न है, वहां व्यक्तीकरण का सिद्धान्त ही कारगर होगा। अभ्यास एक लंबी प्रक्रिया है। एक दिन में कोई परिवर्तन नहीं होता। एक वृत्ति को बदलने और दूसरी वृत्ति का निर्माण करने में लम्बा समय लगता है। महर्षि पतंजलि ने ठीक कहा
मानव और संबंध : ६
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