SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेते हैं, समाधान नहीं होता। अगर मानवीय सम्बन्धों में सुधार करना है, तो अहं और मम का परिष्कार करें, स्वार्थ की चेतना प्रबल न बनें, दूसरे की स्वतंत्रता का अपहरण न हो। मेरा है, इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका कोई अस्तित्व नहीं है, कोई स्वतंत्रता नहीं है। प्रत्येक प्राणी को स्वतंत्रतापूर्वक जीने का अधिकर है। सम्बन्ध मात्र इतना है कि उपयोगिता रहे। जीवन की सापेक्षता हमारा जीवन सापेक्ष है। अकेले का जीवन नहीं चलता। हर आदमी को एक दूसरे की अपेक्षा है। एक आदमी जीता है तो हजारों आदमियों के श्रम की बूंदें उसके साथ जुड़ती हैं। जहां बीज बोया जाता है, वहां से लेकर रसोई में पकने तक न जाने कितने-कितने लोगों का श्रम उसके साथ जुड़ता है तब कोई रोटी खाता है। इतना सापेक्ष है मनुष्य और फिर वह सम्बन्धों की समीक्षा न करे, उन्हें मधुर न बनाए, इससे बड़ी कोई नासमझी क्या हो सकती है ? जीवन की सापेक्षता से जुड़े कितने लोग हैं, उन सबकी समस्याओं पर विचार करना, इसका अर्थ है सम्बन्धों की समस्या पर विचार करना, सबके प्रति संवेदनशीलता और करुणा का दृष्टिकोण अपनाना, सम्बन्धों को मधुर बनाना, उनका परिष्कार करना। संकल्पजा सृष्टि बड़ा जटिल प्रशन है कि सम्बन्ध कैसे सुधरें ? उनमें मधुरता कैसे आए ? जटिल इसलिए है कि अहं जो पीछे बैठा वह जब तक सीमित नहीं होता, तब तक स्वार्थ इतना प्रबल होगा कि वह सम्बन्धों के जल को मीठा नहीं बना पाएगा। वह समुद्र का खारा पानी ही रहेगा, चीनी घोल कर भी उसमें मिठास पैदा नहीं की जा सकती। अहं को सीमित करने के लिए अध्यात्म के आचार्यों ने कुछ उपाय खोजे हैं। अणुव्रत ने इस दिशा में एक दर्शन दिया है। सबसे पहले संकल्प करें। व्रत हमारी बहुत बड़ी शक्ति है। जब संकल्प की चेतना जागती है, परिवर्तन का क्रम शुरू होता है। हमारी सृष्टि संकल्पजा सृष्टि है। जैसा संकल्प करते हैं, वैसे ही सृष्टि बन जाती है। संकल्पजापूर्वक किसी की हिंसा ८ : नया मानव : नया विश्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003059
Book TitleNaya Manav Naya Vishwa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy