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व्याख्या नहीं कर सकते, केवल द्वैत के आधार पर भी संबंधों की व्याख्या नहीं कर सकते। संबंधों की व्याख्या करने के लिए अद्वैत और द्वैत-दोनों का सहारा लेना आवश्यक है। यदि द्वैत ही है तो फिर सम्बन्ध सदा कटुतापूर्ण रहेंगे, भेदानुभूति और दूरी बनी रहेगी। उसे कभी मिटाया नहीं जा सकेगा। द्वैत की पृष्ठभूमि में अद्वैत छिपा हुआ है। आत्मौपम्य, आत्मानुभूति प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख को समान देखना, एक तराजू में दोनों को तोलना-यह सारी अध्यात्म की परंपरा अद्वैत के आधार पर चलती है। केवल अद्वैत से काम नहीं चलता, द्वैत का सहारा लेना जरूरी है। अब दूसरा कोई है तो फिर द्वैत की व्याख्या करनी होगी और उसी के आधार पर मनुष्य को, उसकी प्रवृत्ति और व्यवहार को समझना होगा। अहं और मम अद्वैत और द्वैत-इन दोनों के आधार पर हम सम्बन्धों को सुधारने की चर्चा करें। सम्बन्ध बनने के कारण हैं मौलिक मनोवृत्तियां। हमारी दो मौलिक मनोवृत्तियां हैं-अहं और मम, मैं और मेरा। 'मैं'-यह स्वार्थ का प्रतीक है और 'मेरा' सम्बन्ध का प्रतीक। सारे सम्बन्ध इस मम की वृत्ति के आधार पर बनते हैं। मम का विस्तार होता है, उतना ही सम्बन्धों का विस्तार हो जाता है। यदि मम नहीं होता तो दुनिया में कोई संबंध ही नहीं होता। ममकार का विस्तार सम्बन्धों का विस्तार है। अगर एक ही वृत्ति होती. और अहं नहीं होता तो सम्बन्धों की समस्या नहीं होती। आज जो सम्बन्धों की समस्या है, उसके पीछे अहं काम कर रहा है। जहां 'मैं' यह वृत्ति काम करती है, वहां व्यक्ति में स्वार्थ का विकास होता है, स्वार्थ की चेतना प्रबल बन जाती है। मम की अनेक कोटियां बन जाती हैं। यदि मेरा पुत्र है तो वह मेरे लाभ में भागीदार है यदि मेरा परिवार है तो वह भी हिस्सेदार है। किन्तु मेरा नौकर है तो वह मेरे धन का भागीदार नहीं है। सम्बन्धों की इस कोटि के पीछे अहं की वृत्ति काम कर रही है। जहां मम या अहं का विस्तार होता है, वहां ये समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। किन्तु जहां अहं और मम एक संकुचित सीमा में रहते हैं, वहां सम्बन्ध कटु बन जाते हैं, समस्याएं उलझ जाती हैं।
६ : नया मानव : नया विश्व
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