________________
वैयक्तिकता : सामुदायिकता
मनुष्य सामाजिक प्राणी है, यह सत्य है, किन्तु वह केवल सामाजिक प्राणी नहीं है । जितना सामाजिक प्राणी है, उतना ही वैयक्तिक भी है। अस्तित्ववादी विचारक मनुष्य में सार्वभौम या सामान्य गुण पर नहीं, वैयक्तिक गुण की खोज पर बल दे रहे हैं। उनका मत है - मनुष्य में अपनी कुछ विशेषता है । वह वैयक्तिकता है । उसको गौण कर मनुष्य को कभी समझा नहीं जा सकता । उसका विकास समाज के संदर्भ में होता है । वह समाज में रहता है, समाज में जीता है । सामजशास्त्री कहते हैं- जैसे मछली पानी के बिना जी नहीं सकती, वैसे ही मनुष्य भी समाज के बिना जी नहीं सकता, अपना विकास नहीं कर सकता। दोनों कोण हमारे सामने हैं- अस्तित्वादी विचारकों की वैयक्तिकता और समाजशास्त्रियों की सामुदायिकता। दोनों को मिलाकर देखें, तभी पूर्ण बात होगी ।
मानसशास्त्र का मत
1
मानसशास्त्रियों ने कहा- 'मनुष्य अचेतन के द्वारा संचालित होता है । उसकी सारी प्रवृत्तियां, सारा व्यवहार अचेतन के द्वारा संचालित है । इसे स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है किन्तु अचेतन के द्वारा ही संचालित है, यह अधूरा तथ्य है । इसके पीछे भी कुछ है और आगे भी कुछ है । हमारी जागृत चेतना का भी अपना कुछ अर्थ है, विशेषता है । अचेतन के पीछे भी एक आत्मा की प्रेरणा है, उसका भी अपना कुछ महत्त्व है । हम अचेतन को मध्यवर्ती बिन्दु मान सकते हैं । उसके पीछे आत्मा की प्रेरणा है और आगे चित्त की अभिव्यक्ति । इन दोनों के बीच में हमारी अचेतन चेतना काम करती है | मनुष्य के नाना रूप हैं । वह इतना विशाल है कि उसे कुछ शब्दों में परिभाषित करना बहुत कठिन है ।
समाज और सम्बन्ध
अब हम संबंधों के स्वरूप पर विचार करें। समाज संबंधों की श्रृंखला है । सम्बन्ध का अर्थ है समाजाभिमुखता । जो समाजाभिमुखी हैं, वह सम्वन्धाभिमुखी है। बच्चे के जन्म के साथ ही सम्बन्धों की श्रृंखला प्रारंम्भ
४ : नया मानव : नया विश्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org