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काम और अर्थ काम और अर्थ-ये दो समाज की मूलभूत प्रवृत्तियां हैं। प्रश्न है- काम के सुधरने से अर्थ सुधरता है या अर्थ के सुधरने से काम सुधरता है ? इस बिन्दु पर कम ध्यान दिया गया, इसकी मीमांसा कम की गयी। आर्थिक अवधारणा बाद में बनती है। काम की चेतना स्वाभाविक है। हर व्यक्ति कामना के साथ जन्म लेता है। इच्छा, काम या कामना-यह मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति है। यदि मनोवृत्तियों का वर्गीकरण किया जाये और समाहार किया जाये तो एक ही मनोवृत्ति अंतिम होगी, वह है काम, कामना या इच्छा। प्रत्येक प्राणी में यह होती है। अर्थ का हेतु भी काम है। मूल कामना है, जो सारी प्रवृत्तियों को जन्म दे रही है और सारा विस्तार कर रही है।
काम का अर्थ मार्क्स ने अर्थ पर ध्यान केन्द्रित किया और उसका ऐतिहासिक सन्दर्भ में अध्ययन किया। यदि वैसे ही काम पर ध्यान दिया जाता और उसका ऐतिहासिक सन्दर्भ में अध्ययन किया जाता तो समस्या काफी सुलझ जाती। मूलभूत समस्या अर्थ नहीं है। यह नम्बर दो की समस्या है। एक नम्बर की समस्या है काम। 'काम जानामि ते रूपं' संकल्पात् किल जायसे- काम एक संकल्प के साथ व्यक्त होता रहता है। हम काम को विस्तार से समझें। काम का अर्थ कोरा सेक्स नहीं है, कोरा यौन सम्बन्ध नहीं है। हमारी इन्द्रियों की अतृप्ति, इच्छा-ये सब मनुष्य में नाना रूपों में पैदा होती रहती हैं। आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा-सब इन्द्रियों की कामनाएं हैं, अतृप्ति हैं और वे अपनी अतृप्ति को पूरा करनी चाहती हैं। जैसे इन्द्रिय की इच्छा और कामना है, वैसे ही मन और भावनागत कामना है। काम, अर्थ और भोग पुरुष क्या है ? काम ही तो है-एष वै काम : अगर कामना न हो तो पुरुष का जीवन बदल जायेगा। गीता में जो निष्काम शब्द का चुनाव किया गया है, वह बहुत सटीक है। निष्काम वह है, जो कामना रहित है। फल की कामना नहीं है तो फिर अर्थ की स्पर्धा नहीं होगी, अर्थ का अपराध भी नहीं
१६६ : नया मानव : नया विश्व
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