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की चेतना जागृत है, प्रामाणिकता है। अहिंसा के सारे तत्त्वों को इस प्रकार उसमें गर्भित कर दिया जाए, जिससे ऐसा न लगे कि कुछ अतिरिक्त दिया जा रहा है और अहिंसा की अवधारणाएं उसमें इस प्रकार समाहित हो जाएं कि उसकी मिठास पूरे पाठ्यक्रम में आ जाये। विद्यार्थी अर्थशास्त्री बनें, समाज शास्त्री बनें या पर्यावरणशास्त्री बनें। अध्यात्म के तत्त्व भी इस प्रकार समाहित हों कि पढ़ने वाले की चेतना जागृत हो जाये, उसका मस्तिष्कीय परिवर्तन हो जाए। सबसे बड़ी बात है-इस प्रकार की चेतना का जाग जाना, मस्तिष्कीय परिवर्तन का हो जाना लेकिन यह हो नहीं रहा है। अहिंसा और अर्थशास्त्र की अवधारणाएं पूज्य गुरुदेव जैन विश्व भारती में विराज रहे थे। अजमेर विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर आहूजा आए। वार्तालाप के एक प्रसंग में हमने कहाअर्थशास्त्र के साथ अहिंसा जुड़नी चाहिए। हमारा अर्थशास्त्र अहिंसा का अर्थशास्त्र होना चाहिए। उन्होंने कहा-आप क्या कह रहे हैं ? अर्थशास्त्र तो प्रारंभ से ही हिंसा की बात सिखाता है। अर्थशास्त्र की सारी अवधारणाएं हिंसा की ओर ले जाती हैं, भोगोन्मुख बनाती हैं, स्पर्धा को जन्म देती हैं। मनुष्य एक बौद्धिक प्राणी है और उसमें यह क्षमता है कि वह ज्यादा कमाए। ज्यादा इच्छा, ज्यादा आवश्यकता, ज्यादा संग्रह, ज्यादा उत्पादन-ये सारी अवधारणाएं तो हिंसा की ओर ले जाने वाली अवधारणाएं हैं और आप कह रहे हैं-अर्थशास्त्र को अहिंसा का अर्थशास्त्र बनाएं। इनमें कोई मेल नहीं है। हमने कहा-आज अर्थशास्त्र की अवधारणाओं को बदलना जरूरी है। गांधीजी के परिपार्श्व में जो अर्थशास्त्री थे, उन्होंने कुछ ऐसा प्रयत्न किया था किन्तु आज के भौतिकताप्रधान और अर्थप्रधान युग के लोगों को ऐसी बातें मान्य नहीं होतीं। आज की अवधारणा है-'अर्थसारं सर्वस्वम्'--अर्थ ही सब कुछ है। ऐसी स्थिति में नैतिक अवधारणाएं काम नहीं कर रही हैं।
अनुकूल वातावरण आज फिर एक अवसर है और वह इसलिए है कि शायद उस समय आज जितने आर्थिक अपराध नहीं थे, इतनी आर्थिक जटिलताएं भी नहीं थीं,
शिक्षा का नया आयाम : १८७
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