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जाती हैं। एक बड़ा प्रश्न है- शिक्षा जगत् में इसे महत्त्व क्यों नहीं दिया गया ? शिक्षाशास्त्रियों ने इस ओर ध्यान क्यों नहीं दिया ? समाधान के दो विकल्प हो सकते हैं
आचरण की स्वतंत्र शाला - आचरण की विशेषज्ञता ।
आचरण का सामान्यीकरण
पहला विकल्प अच्छा लगता है । विद्या की किसी भी शाखा में जाएं, आचरण या चरित्र की शिक्षा सबके लिए अनिवार्य हो, इतना तो होना ही चाहिए। जहां विशिष्टीकरण की बात है, कोई चरत्रिविज्ञान में भी विशेषज्ञ बनें, विशेषज्ञता प्राप्त करें। सामान्यीकरण की शाखा अनिवार्य है, विशेषज्ञता अनिवार्य नहीं हो सकती। कुछ व्यक्ति, जो रुचि वाले हैं, वे इस शाखा में विशेषज्ञता भी प्राप्त करें। आवश्यक है- विश्वविद्यालय में एक फैकल्टी हो, जो चरित्र की विशेषज्ञता प्राप्त कराए। किन्तु जहां सामान्यीकरण का प्रश्न है, वहां प्राथमिक शिक्षा से विश्वविद्यालयी शिक्षा तक चरित्र विज्ञान का प्रशिक्षण अनिवार्य होना चाहिए । आचरण की सामान्य शिक्षा तो मिलनी ही चाहिए। हर कक्षा में और अध्ययन की हर शाखा में वह मिले। प्रश्न होगा - कैसे मिले ? इसके लिए प्राथमिक कक्षाओं में एक स्वतंत्र विषय होना जरूरी है, जिससे विद्यार्थियों को चरित्रविज्ञान, नैतिकता, अध्यात्म की जानकारी मिले । अहिंसा, सत्य आदि अध्यात्म के समग्र पक्षों का ज्ञान देना, उनका प्रयोग कराना - यह प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य होना चाहिए। ग्रेजुएशन या पोस्टग्रेजुएशन में थोड़ा-सा परिवर्तन हो जाएगा। बी. ए. अथवा एम. ए. का जो सब्जेक्ट है, उसी में उसका समावेश हो जाए ।
समाहार कैसे हो ?
अर्थशास्त्र के अध्ययन के साथ-साथ चरित्र के तत्त्व उसमें इस प्रकार समाहित कर लिए जाए जैसे दूध में चीनी मिला दी जाती है। दूध में चीनी का पता नहीं चलता और दूध में मिठास आ जाती है । वैसे अहिंसा और अहिंसा का पूरा परिवार, जिसमें जातीय उन्माद या अभिनिवेश नहीं है, सांप्रदायिक कट्टरता नहीं है, मानवीय एकता का संबोध है, नशामुक्ति, पर्यावरण और लोकतंत्र विशुद्धि
१८६ : नया मानव : नया विश्व
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