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के साथ नहीं खेलेगा तो फिर किसके साथ खेलेगा ?' ।
राजा यह सुनकर अवाक रह गया। उसने कहा-'तुम बहुत अच्छे बच्चे हो। मैं तुम्हें अपने महल में ले जाना चाहता हूं। क्या तुम मेरे साथ चलोगे ?
बच्चे ने बड़ी गम्भीरता से कहा-'चल सकता हूं, किन्तु मेरी दो शर्ते हैं।' राजा ने पूछा-'कौन-सी शर्त ?
बच्चे ने कहा-'पहली शर्त-जब मैं सोऊं तो तुम जागते रहो, दूसरी शर्त-तुम निरन्तर मेरे साथ रहो, एक क्षण के लिए भी मुझे छोड़ कर कहीं मत जाओ।
राजा बोला-'यह कैसे संभव है ? मैं सोता हूं तो प्रहरी जागते हैं। मैं कैसे जागूंगा ? राज्य के संचालन में मुझे कई जगह जाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में तुम्हारी दूसरी शर्त कैसे मान सकता हूं? ___बच्चे ने कहा-'तो फिर मुझे भी आपकी बात मान्य नहीं है। मैं अपने प्रभु के साथ रहता हूं। मेरा प्रभु हमेशा मेरे साथ रहता है। मैं सोता हूं तो वह जागता रहता है। उसे छोड़ कर मैं तुम्हारा साथ क्यों स्वीकार करूं ? ममत्व की भ्रांति से परे यह है अध्यात्म की चेतना। मेरा कुछ भी नहीं, मेरा है सिर्फ मेरी आत्मा, उसे चाहे ईश्वर कहें, प्रभु या परमात्मा कहें। जब हम अपनी आत्मा के साथ रहते हैं तो पदार्थ मात्र उपयोगी और आवश्यक रहते हैं। उनमें आसक्ति नहीं जागती। अनासक्ति का विकास चेतना की अनुभूति के बिना कभी संभव नहीं होता। अन्यथा एक करोड़पति आदमी में भी पदार्थ की इतनी आसक्ति होती है कि मुट्ठी से सौ का नोट गिर जाए तो वह पूरे दिन रोटी नहीं खाता। सौ रुपये गिर जाने से क्या फर्क पड़ा ? मूल्य रुपये का नहीं, उसके लगाव का होता है। वह लगाव ही दुःख देता है। मैंने कई बड़े आदमियों को देखा है, जिनका थोड़ा-सा भी कुछ इधर-उधर हो जाता है तो उन्हें ऐसी अनुभूति होती है कि जैसे सब कुछ चला गया। एक धनाधीश के लिए पांच-दस लाख रुपये कोई बड़ी बात नहीं है, किन्तु एक पैसा देना भी उन्हें भारी पड़ता है। कारण क्या है ? कारण है आसक्ति।
हम सत्य को देखें, खोज करें तो यह बोध होगा-वास्तव में हमारा कुछ
१७२ : नया मानव : नया विश्व
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