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हमें तर्कपूर्ण पद्धति मिली, ऐसे लचीलेपन की प्रेरणा मिली कि हमें सबका प्रयोग करना चाहिए। हमने केवल प्राचीन साहित्य का ही प्रयोग नहीं किया, विज्ञान का भी इसमें भरपूर प्रयोग किया है। हमारी यह धारणा है-बहुत सारे साधना के तत्त्व ऐसे हैं, जो प्राचीन हैं किन्तु उनकी व्याख्या वर्तमान विज्ञान से जितनी अच्छी हो सकती है, किसी प्राचीन ग्रन्थ से उतनी अच्छी नहीं हो सकती। विज्ञान का उपयोग आज शरीरशास्त्र और शरीर क्रियाशास्त्र भी बहुत विकसित हो गया है। साइकोलोजी का भी बहुत विकास हुआ है। कोई भी ध्यान की पद्धति हो, यदि उसमें वर्तमान की वैज्ञानिक विधियों का समावेश नहीं है तो वह शायद अंधेरी कोठरी में पत्थर फेंकने जैसी बात होगी। उसका पूरा उपयोग करना चाहिए। हमने प्रेक्षाध्यान की पद्धति में वर्तमान शरीरविज्ञान, शरीरक्रिया विज्ञान और मनोविज्ञान का भरपूर प्रयोग किया है, उसकी व्याख्या को एक नया आयाम और नया रूप दिया है। इसीलिए एक चिकित्सक प्रेक्षाध्यान को बहुत जल्दी पकड़ लेता है। एक डॉक्टर ने कहा-प्रेक्षाध्यान हमारे लिए बहुत सहज है, क्योंकि शरीर के बारे में मैं अच्छी तरह जानता हूं, हर अवयव से मैं परिचित हूं, इसलिए ध्यान करना मेरे लिए सहज है। यह एक यथार्थ है-शरीर को जाने बिना ध्यान ठीक से हो नहीं सकता। वर्तमान चिकित्सक प्राण-प्रवाह को नहीं जानते। यदि उसे जान जाएं तो चिकित्सा विज्ञान बहुत आगे बढ़ जाए। शरीर में प्राण प्रवाह एक ठण्डा चलता है एक गरम चलता है। कब किसका प्रयोग करना चाहिए, इस बारे में जानना बहुत आवश्यक
यह स्रोत कहां से आया बहुत वर्ष पहले मैंने एक निबंध लिखा-शरीर के किसी भी भाग से देखा जा सकता है । वह निबंध 'अणुव्रत' में प्रकाशित हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने उसे पढ़ा। उसने पत्र के संपादक को बुलाकर पूछा-किसने लिखा है यह लेख। उसे बताया गया-यह लेख मुनि नथमल
प्रेक्षाध्यान के मूलस्रोत : १६१
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