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पारायण किया और उनका उसमें यथावकाश सन्निवेश भी किया।
उदयपुर का पंचायती नोहरा । रात्रि प्रतिक्रमण के पश्चात् मैं गुरुदेव की सन्निधि में बैठा था । प्रसंगवश मैंने निवेदन किया- जैनों में तो ध्यान पर बहुत कुछ लिखा गया है । तत्काल गुरुदेव ने कहा- हां, लेकिन अब यह परम्परा छूट गई। अब क्यों न इस पर अनुसंधान किया जाए ? यह मंत्र था प्रेक्षाध्यान के अभ्युदय का । प्रेक्षाध्यान के मंत्रदाता बने आचार्य तुलसी । वहीं से बीज की बुवाई हो गई । बीज बोया गया, अंकुरित हुआ और बड़ी तेजी से बढ़ने लगा। सफल बीज था, व्यर्थ और निकम्मा बीज नहीं था ।
एक आदमी बीज बो रहा था। किसी ने पूछा- क्या बो रहे हो ? उसने कहा- नहीं बताऊंगा । 'तुम मत बताओ, उगेगा तो स्वयं पता लग जाएगा।' उसने कहा- ऐसा बोऊंगा ही नहीं, जो उगे ।
नामकरण
इस तरह का बीज नहीं था प्रेक्षाध्यान। सार्थक बीज था । भीतर ही भीतर पकता रहा और एक दिन ऊपर आ गया । न कोई नाम का विज्ञापन और न कुछ विशेष प्रचार । शिविर होने लगे । सन् १९७४ में भगवान् महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी पर जयपुर और दिल्ली में ध्यान के शिविर चले । उसके पश्चात् सन् १९७५ में जयपुर में चिंतन किया गया - जब हमारी ध्यान पद्धति का प्रारंभ हो गया है, शिविर भी लग रहे हैं तो क्यों न इसका नामकरण कर दिया जाए । यह चिन्तन क्रियान्वित हुआ ग्रीन हाउस में और ग्रीन हाउस के शीशमहल में |
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ध्यान के लिए आगम में दो शब्द मिलते हैं - विपश्यना और प्रेक्षा । ये पुराने शब्द हैं। विपश्यना बौद्ध ध्यान पद्धति है । हमने प्रेक्षा शब्द का चुनाव किया । पूज्य गुरुदेव की सन्निधि में इस नाम का निर्धारण हुआ ।
अर्वाचीन स्रोत
भगवान् ऋषभ के ज्येष्ठ पुत्र भरत ने प्रेक्षा - प्रयोग किया था और वहां से गुजरता हुआ वह अर्थ सन् १८७४ में प्रेक्षा में समाहित हो गया । अर्थ पुराना, शब्द नया । यह प्रेक्षा के प्राचीन से वर्तमान स्रोत तक की संक्षिप्त
१५६ : नया मानव : नया विश्व
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