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शरीरप्रेक्षा, इन्द्रियप्रेक्षा, विचारप्रेक्षा, प्राणप्रेक्षा आदि-आदि के जो प्रयोग हैं, वे जीवन को समग्रता से समझने के प्रयोग हैं। इस अर्थ में यह कहा जा सकता है कि प्रेक्षाध्यान की पद्धति कोरा ध्यान नहीं है, जीवन का दर्शन है।
अस्तित्ववाद : उपयोगितावाद
दर्शन पक्ष पर भी विचार करें । दर्शन शब्द बहुत पुराना है और हजारों वर्षों से यह शब्द प्रयोग में आ रहा है । आज के विश्वविद्यालय में जो दर्शन पढ़ाया जाता है, वह कोरा वैचारिक दर्शन है। दर्शन को हम दो आयामों में देखें। एक दर्शन का अर्थ विषय के साथ जुड़ा हुआ है और एक दर्शन का अर्थ विचार के साथ जुड़ा हुआ है । उसका विषय तथ्य है विज्ञान का विषय भी तथ्य है । हम किसी तत्त्व को जानें, बस इतना - सा दर्शन का काम है । यह हमारा तथ्यात्मक, तथ्यपरक दर्शन है । तत्त्व को जान लिया, सत्य को जान लिया । इसे दर्शन की भाषा में अस्तित्ववादी धारा कहा गया है ।
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दर्शन की दूसरी धारा है उपयोगितावाद । इसमें तथ्य से कोई सम्बन्ध नहीं रहता । मात्र उपयोगिता से संबंध रहता है । आजकल अप्लाइड फिलॉसफी का बहुत प्रयोग होता है । वह दर्शन नहीं, जिसे अप्लाई न किया जा सके । दर्शन केवल तथ्यपरक नहीं, प्रयोगात्मक होना चाहिए ।
जीवन को भी समझें
दर्शन की दो धाराएं बन गईं- आदर्शवादी और यथार्थवादी । यथार्थवादी धारा में अस्तित्व और तथ्य का प्रश्न आ जाता है, किन्तु आदर्शवाद में एक विचार है, एक प्रकल्प है, उसी पर सारा दर्शन चलता है । हम इन दोनों से हटकर दर्शन को जीवन के साथ जोड़ें । न विश्व की व्याख्या करें, न परम सत्य या निरपेक्ष सत्य की व्याख्या करें। हम मात्र जीवन की व्याख्या करें, जीवन को समझें। यह दर्शन जीवन को समझने का दर्शन है । हमारी ऐसी दृष्टि बने, जिससे हम जीवन को समझ सकें ।
आज की समस्या यही है कि जीविका को समझने के लिए सारी शक्ति का नियोजन किया जा रहा है । कुछ विद्यार्थी आए । मैंने कहा- कभी जीवन
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१५० : नया मानव : नया विश्व
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