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गई। श्रेणिक ने फिर पूछा-महाराज ! अब क्या स्थिति है ? महावीर ने कहा-परम तक पहुंच गए। जहां पहुंचना था, पहुंच गए। पवित्र एकाग्रता हम जो करना चाहते हैं, उसमें बहुत व्यवधान आते हैं। स्मृति का चिन्तन
और कल्पना का, आन्तरिक भावों का, क्रोध आदि संवेगों का व्यवधान आता है, कार्य बीच में रुक जाता है। कार्य-कौशल की वृद्धि के लिए आवश्यक है कि हम पवित्र एकाग्रता की साधना करें। एकाग्रता एक बगुले की भी हो सकती है किन्तु वैसी एकाग्रता नहीं होनी चाहिए। इसीलिए प्रेक्षाध्यान में इस बात पर बहुत प्रकाश डाला गया है कि आर्तध्यान और रौद्रध्यान में होने वाली एकाग्रता सफलता की एकाग्रता नहीं है। एकाग्रता पवित्र लक्ष्य पर होनी चाहिए। लक्ष्य पवित्र बनाओ और उसमें एकाग्र बनो। पवित्रता का व्यावहारिक अर्थ यह है-दूसरे का अहित, अनिष्ट जिस कार्य के साथ जुड़ा हो, उस कार्य में एकाग्रता न बढ़े। विशुद्धि केन्द्र का ध्यान विशुद्धि केन्द्र का ध्यान भी कार्य-कौशल की वृद्धि में सहायक होता है। योग में बहुत ठीक नाम का प्रयोग किया गया-विशुद्धि केन्द्र । यह हमारी विशुद्धि का केन्द्र है। शरीरशास्त्र की दृष्टि से इसके अनेक काम हैं। मुख्य काम है चयापचय की क्रिया में संतुलन रखना, उसे ठीक बनाए रखना। इसे आचार्य का स्थान माना गया है। आचार्य का अर्थ है-स्वयं आचारकुशल होना और दूसरों को आचार में प्रवृत्त करना। यह स्थान एकाग्रता और पवित्रता के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। कार्यकौशल का हृदय हम इन सबका प्रयोग करें, निर्दोष कार्य-कौशल का अर्थ और भाषा समझ पाएंगे। हमारा वह कार्य-कौशल विकसित हो सकता है, जो किसी को अकुशल न बनाए, पीड़ा न पहुंचाए, दूसरों के हितों पर कुठाराघात न करे, दूसरे का शोषण न करे। प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में ऐसे कार्य-कौशल को ही
१४० : नया मानव : नया विश्व
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