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तादात्म्य स्थापित कर लेना, एक रस हो जाना, जैसे दूध में चीनी और पूरा समर्पण कर देना। वर्तमान में जीएं दूसरा सूत्र है-वर्तमान में जीना। वर्तमान का अनुभव, वर्तमान का जीवन
और वर्तमान का श्वास। हम श्वास लेते हैं तो कभी अतीत में नहीं लेते, न भविष्य में लेते हैं। कल्पना तो अतीत की भी करते हैं, भविष्य की भी करते हैं, किन्तु हमारा श्वास केवल वर्तमान का ही होता है। हमारी एकाग्रता का एक बहुत बड़ा आलम्बन बनता है श्वास। श्वास पर ध्यान दिया, हम वर्तमान में आ गए, भावक्रिया हो गई। जैन साहित्य में दो शब्द आते हैं-द्रव्यक्रिया और भावक्रिया। द्रव्यक्रिया का तात्पर्य है मुर्दा क्रिया, मृत क्रिया। भावक्रिया का अर्थ है जीवित क्रिया, प्राणवान् क्रिया। वर्तमान में जो जीया जा रहा है, केवल उसी का अनुभव करते रहें, यह कार्य-कौशल का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। एकाग्रता और कार्यकौशल एकाग्रता के लिए साधना जरूरी है, अभ्यास जरूरी है। अभ्यास होता है तो एकाग्रता बढ़ जाती है। ऐसे लोगों को देखा है, जिन्होंने श्वास के सहारे, चैतन्यकेन्द्र प्रेक्षा के सहारे अपनी एकाग्रता का विकास किया है और अपने कार्यकौशल को बढ़ाया है। इससे उनकी एकाग्रता भी बढ़ गई। एक समस्या जरूर उनके सामने आयी कि वे खाली हो गए। एक भाई ने कहा-मैं दो घण्टा ध्यान करूंगा।
मैंने कहा- 'कैसे करोगे ? समय कहां है, तुम्हारे पास ? वह बोला-'समय मेरे पास बहुत हो गया है।' 'कहां से आया ? क्या व्यस्तता घटी है ?
'महाराज ! मेरी एकाग्रता इतनी सध गई है कि पांच-सात घण्टे में जो काम करता था, वह तीन घण्टे में हो जाता है। इस अवशिष्ट समय में मैं एकाग्रता के अधिक प्रयोग करना चाहता हूं।'
हम सूक्ष्मता से देखें, पता चलेगा-हमारा समय काम करने में कम
१३८ : नया मानव : नया विश्व
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