SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तःकरण की भावना भी उसके साथ जुड़ जानी चाहिए। हमारे अन्तःकरण की सारी प्रवृत्तियां उसके लिए समर्पित हो जाएं। जब तक उस कार्य के लिए समर्पण नहीं होता, तब तक कार्य-कौशल नहीं बढ़ता। समर्पण के बाद फिर शेष कुछ नहीं बचता। इतना समर्पण चाहिए अरब के एक बाजार में गुलामों की बिक्री हो रही थी। एक ग्राहक ने किसी गुलाम से कहा- 'मैं तुम्हें खरीदना चाहता हूं। क्या तुम मेरे साथ चलोगे ? 'चलूंगा' 'क्या करोगे ? 'मालिक ! जो आप कहेंगे।' 'कहां रहोगे ? 'जहां आप रखेंगे। 'क्या खाओगे ? 'जो आप देंगे।' 'कहां सोओगे ? 'जहां आप बताएंगे।' मालिक पूछता गया और गुलाम ने एक ही उत्तर दिया-जो आप कहेंगे। एक फकीर पास में खड़ा था। वह देखकर स्तब्ध रह गया। उसकी समझ में आ गया कि वह साधना में सफल क्यों नहीं हो रहा है। उसने सोचा-एक गुलाम अपने मालिक के लिए इतना समर्पित होता है और मैं अपने प्रभु का गुलाम बनकर इतना भी समर्पित नहीं हूं। मुझे इस गुलाम जितना समर्पित होना पड़ेगा, तभी प्रभु के दर्शन होंगे। यह स्थिति बनती है तो कार्य-कौशल बढ़ता है। जो ध्यान साधना में सफल होना चाहता है, एकाग्र होना चाहता है, उसे इतने शब्दों पर ध्यान देना होगा--तच्चिते, तम्मणे, तल्लेसे, तदज्झवसाणे, तदत्योवउत्ते और तदप्पियकरणे-पूर्ण तादात्म्य से लेकर समर्पण तक की व्यवस्था होगी तब कार्य में सफलता मिलेगी। हमारी एकाग्रता के कई रूप बन जाते हैं-एक बिन्दु पर टिकना या कार्य-कौशल : १३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003059
Book TitleNaya Manav Naya Vishwa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy