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कर्मचारी, मजदूर काम में लगे। इसके साथ कार्य की क्षमता - एफिशिएंसी का एक नया प्रश्न खड़ा हो गया। कार्यकौशल की बात आज ही नहीं, प्राचीन काल में भी रही है । प्रश्न है- कौशल किसको मानें ? वर्तमान चिंतन में कौशल के अनेक सूत्र दिए गए हैं। उनकी चर्चा करने से पूर्व कौशल शब्द को समझें । कार्य का कौशल वह है, जो दूसरे हित को बाधित न करे । कार्यकौशल है और शारीरिक स्वास्थ्य को बाधित करता है तो वह वास्तव में कौशल नहीं है । कार्य आज इतना अधिक बढ़ गया है कि उससे शारीरिक स्वास्थ्य गड़बड़ा रहा है। उससे भी ज्यादा मानसिक और भावात्मक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है। कौशल वह है, जो लाभ दे, किन्तु हानि न पहुंचाए । यह ऐसी एलोपैथिक दवा न बने, जो एक बीमारी को मिटाए और दस बीमारियों को पैदा करे । उसके साइड इफेक्ट और रियेक्शन न हो कि नई बीमारी पैदा हो जाए । कुशल चिकित्सा वह मानी जाती है, जो बीमारी को मिटाए, किन्तु कोई नई व्याधि पैदा न करे। हमारा कार्यकौशल बढ़ा है, किन्तु उसी के साथ मानसिक अस्तव्यस्तता भी बढ़ी है ।
प्रश्न सीमा का
भारतीय चितंन के संदर्भ में एक प्रश्न उभरता रहा है-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इनकी सीमा क्या है ? कहा गया है- वह काम अच्छा नहीं है, जो अर्थ को बाधित करे । व्यक्ति काम में इतना लिप्त न हो जाए कि रोजी-रोटी भी न जुटा सके, अर्थ का अर्जन भी न कर सके । अर्थ का अर्जन जीवन के लिए अनिवार्य है, किन्तु अर्थार्जन में व्यक्ति इतना न उलझ जाए कि वह काम को बाधित करे । आदमी अपने धर्म को, कर्तव्य और आत्मा की पवित्रता को न साध सके तो अर्थ और काम- दोनों निकृष्ट बन जाएंगे ।
दूसरा पहलू
कौशल पर विचार करते समय हमें अनेक पहलुओं पर विचार करना होगा । कौशल बढ़ा है, लेकिन वह स्वास्थ्य को तो नहीं प्रभावित कर रहा है ? वह मानसिक विक्षेप और पागलपन को तो नहीं बढ़ा रहा है, वह हमारे आवेश और उत्तेजना को तो नहीं बढ़ावा दे रहा है । अगर ऐसा हो रहा है तो उसे
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कार्य-कौशल : १३३
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