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________________ कार्य-कौशल गीता का एक पद है-योगः कर्मसु कौशलम् । कर्म में कौशल का नाम योग है। यह योग की एक परिभाषा है। यह भी कहा जा सकता है--योग कर्म के कौशल का साधन बनता है। शारीरिक, मानसिक और भावात्मक-इस त्रिविध स्वास्थ्य के सन्दर्भ में ही कार्य कौशल को देखा जा सकता है, समझा जा सकता है। प्रयोजन कार्य का काम करना अनिवार्य नहीं है। काम करना अनिवार्य बनता है अपनी आवश्यकता पर। जितनी हमारी आवश्यकता, उतना कार्य। अपने आप में कार्य का कोई अर्थ नहीं होता। मनुष्य उतनी प्रवृत्ति करे, जितनी जरूरी हो। वह चौबीस घण्टे प्रवृत्ति करता रहे तो उसका कोई अर्थ नहीं बनता। प्रयोजन के साथ कार्य आता है। जितना प्रयोजन, उतना कार्य । प्रयोजन समाप्त, कार्य समाप्त। कहा गया-प्रयोजनमनुद्देश्य मन्दोपि न प्रवर्तते-प्रयोजन के बिना कोई मन्दमति आदमी भी प्रवृत्ति नहीं करता। प्रवृत्ति के लिए प्रयोजन मुख्य होता है। हमारा प्रयोजन क्या है ? प्रयोजन है जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं-खाना, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा आदि-आदि। इसी के साथ कार्य का भी विस्तार हुआ। वह कौशल है वर्तमान युग में औद्योगिक और व्यावसायिक विस्तार हुआ। हजारों-हजारों १३२ : नया मानव : नया विश्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003059
Book TitleNaya Manav Naya Vishwa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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