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आनन्द की स्थापना हमारे भीतर नहीं होगी, हमारा आनन्द बार-बार विखंडित होता रहेगा। परम शान्ति की अवधारणा हमारे मस्तिष्क में नहीं है, तो हमारी शान्ति बार-बार खंडित होती रहेगी। परम सुख की अवधारणा हमारे मस्तिष्क में नहीं है तो हमारा सुख बार-बार विघटित होता रहेगा। क्षण में तुष्ट, क्षण में रुष्ट-सारा जीवन ऐसे ही चलता है। न जाने कितनी बार हमारे भावों में परिवर्तन होता है। एक व्यक्ति प्रातःकाल उठता है, तब से लेकर जब रात को सोने जाता है, तब तक अपने भावजगत् की यात्रा करे और कापी में नोट करता जाए-कब मैं सुखी बना, कब मैं दुःखी बना, कब शान्ति का अनुभव किया, कब अशान्ति का अनुभव किया तो संभव है पूरी कॉपी भर जाएगी। इतना उतार-चढ़ाव क्षण-क्षण में आता रहता है। उससे प्रभावित हुए बिना हम रह नहीं सकते। एक व्यक्ति ने कह दिया-यहां मत बैठो, बस इसे अपमान समझ लिया और सारा द्वन्द्व यहीं से छिड़ गया। मन का घोड़ा शीघ्र गति से दौड़ने लगेगा, बदले की भावना तीव्र हो जाएगी। प्रतिशोध की वृत्ति एक आदमी ने बहुत बड़ा भोज किया। बड़े-बड़े लोगों को आमंत्रित किया। वह स्वयं लोगों को खाना परोस रहा था। राजस्थान में भोजन के अंत में पापड़ परोसने की प्रथा है। पापड़ परोसने के क्रम में ऐसी स्थिति बनी कि सबसे अंतिम आदमी तक पहुंचते-पहुंचते पापड़ खंडित हो गया। वह आदमी बहुत अहंकारी था। उसके भावजगत् में हलचल-सी मच गई। उसने सोचा-सबको अखण्ड पापड़ दिया और जान-बूझकर मुझे खंडित पापड़ देकर मेरा अपमान कर दिया। जैर भी हो, मैं इस अपमान का बदला लूंगा। मन में एक ग्रन्थि बन गई। कुछ दिनों के बाद उसने भी एक भोज का आयोजन किया। वह आयोजन उसने प्रतिशोध लेने के लिए किया। प्रतिष्ठित और बड़े लोगों को आमंत्रित किया। विशेष कर उन सबको, जो पूर्व भोज में शामिल हुए थे। उस व्यक्ति को विशेष रूप से बुलाया, जिससे प्रतिशोध लेना था। आखिर पापड़ परोसने की बारी आयी। सब को समूचा पापड़ दिया। उस व्यक्ति की बारी आने पर पापड़ के कई टुकड़े कर दिए। वह आदमी भद्र था। उसके मन में कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। पापड़ तोड़कर ही
भावात्मक स्वास्थ्य : १२७
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