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है-गंधवती पृथ्वी-पृथ्वी गंधवती होती है। पृथ्वी में गंध कहां है ? उसमें गंध है, किन्तु अव्यक्त है। पानी डालो, भीनी-भीनी गंध आनी शुरू हो जाएगी। हमारा मानसिक जगत् व्यक्त जगत् है और भावजगत् अव्यक्त जगत् है। सारी घटनाएं वहां घटित होती हैं, फिर बाहर आती हैं। बच्चा गर्भाशय में पलता है, फिर बाहरी जगत् में आता है। जब से भ्रूण बना, गर्भाशय में पोषण शुरू हुआ, वास्तविक जन्म तो वहीं हो गया। जब वह बाहर की दुनिया में आता है, तभी हम मानते हैं कि जन्म हुआ। यह हमारा उपचार है, क्योंकि हम बाहरी दुनिया में जीते हैं। हमारी इन्द्रियां बाह्य जगत् में काम करती हैं, इसलिए हम बाहर की घटना को महत्त्व देते हैं, भीतर की घटना को महत्त्व नहीं देते। जिस व्यक्ति ने भावजगत को समझने का प्रयत्न किया है, मेडिकल साइंस की भाषा में जिसने हाइपोथेलेमस को समझने का प्रयत्न किया है, वह जानता है-कहां क्या कुछ हो रहा है। केवल जानना ही पर्याप्त नहीं है। प्रश्न है बदलने का। प्रश्न है शांति का पूरे विश्व के सामने प्रश्न है शान्ति का। जागतिक संदर्भ में देखें तो प्रश्न है विश्वशान्ति का। व्यक्तिगत संदर्भ में देखें तो प्रश्न है मन की शान्ति का। अशान्ति कोई नहीं चाहता, सब शान्ति का जीवन जीना चाहते हैं । यह संभव कैसे होगा ? जब तक भावजगत् का परिष्कार नहीं होगा, न व्यक्ति की शान्ति संभव है और न जागतिक या विश्व शान्ति संभव है। हमें परिष्कार करना होगा भावजगत् का, जहां अशान्ति का जन्म हो रहा है।
परिष्कार का मार्ग परिष्कार का एक मार्ग है-इष्ट का चुनाव। कोई भी धर्म ऐसा नहीं है, जिसमें किसी इष्ट की अवधारणा न हो। इष्ट कौन हो सकता है ? क्या गुरु इष्ट हो सकता है ? नहीं, गुरु पथदर्शक हो सकता है, इष्ट नहीं हो सकता। क्या कोई मनुष्य इष्ट हो सकता है ? एक शिक्षक पथदर्शक हो सकता है, जो पढ़ाता है, कुछ बताता है, मार्गदर्शन देता है। गुरु मनुष्य है। मार्गदर्शन, पथदर्शन देता है, संचालन करता है, पर इष्ट नहीं हो सकता। तीर्थंकर भी
भावात्मक स्वास्थ्य : १२५
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