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संघर्ष चल रहा है। उन्होंने किसी सन्दर्भ में कहा था-स्ट्रगल फार सर्वाइबल, जीवन के लिए संघर्ष जरूरी है। जीवन के लिए वह संघर्ष बाहरी निमित्तों, परिस्थितियों के साथ होता है किन्तु हमारे अन्तर्गजगत् में भी सतत संघर्ष चल रहा है। कर्म-शास्त्रीय परिभाषा में दो शब्द हैं-औदयिक भाव और क्षायोपशमिक भाव । क्षायोपशमिक भाव का अर्थ है-सतत संघर्ष । औदयिक भाव अहंकार, क्रोध, छल-कपट, ईर्ष्या आदि को बढ़ाता है। उसका काम ही है इन विचारों का संपोषण करना, इन्हें बढ़ाना । क्षायोपशमिक भाव का काम है-विकारों को घटाना, उपशम को बढ़ाना। क्रोध, अहंकार आदि को दबाना, विनम्रता, ऋजुता आदि को पोषण देना। यह दो धाराओं में संघर्ष निरंतर जारी है। एक आत्मा की पवित्र धारा है, दूसरी आत्मा की कार्मिक धारा है। हमारे भीतर ये दोनों धाराएं बराबर अपना काम कर रही हैं। एक श्रेणी है क्रोध, अहंकार आदि की, दूसरी श्रेणी है उपशम, मृदुता, विनम्रता, आदि की। इन दोनों में सदा संघर्ष चलता रहता है।
भाव शस्त्र प्रश्न है-प्रेक्षाध्यान का अभ्यास क्यों करें ? वह इसीलिए जरूरी है कि जो धारा हमारे भावों को उत्तेजना देती है, उन्हें मलिन बनाती है, मन में अशान्ति पैदा करती है, युद्ध और आतंक पैदा करती है, उस धारा को कमजोर बनाना है। उस धारा को प्रबल बनाना है, जिसमें शान्ति और अहिंसा है, सामंजस्य
और समन्वय है, मैत्री और सहअस्तित्व है। हम आज के चिन्तन को पढ़ें। संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र का एक वाक्य है-'युद्ध पहले मस्तिष्क में लड़ा जाता है, फिर युद्धक्षेत्र में। आज यह बात बहुत प्रसिद्ध हो गई। ढाई हजार वर्ष पहले महावीर ने शस्त्रों का वर्गीकरण करते हुए इस सचाई को प्रस्तुत किया था-शस्त्र दस प्रकार के होते हैं। उनमें दसवां शस्त्र है भाव। लड़ाई, संघर्ष, हिंसा, और युद्ध पहले हमारे भावजगत् में पैदा होता है। वह बाह्य जगत् में मात्र अभिव्यक्त होता है।
व्यक्त जगत् : अव्यक्त जगत् बाहर का जगत् व्यक्त है, भीतर का अव्यक्त। सांख्य दर्शन में माना जाता
१२४ : नया मानव : न
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