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मूल स्रोत है आत्मा
मूल स्रोत है आत्मा । आत्मा की चेतना बाहर आ रही है। सबसे पहला वलय है, कर्म - शरीर का । वहां से कर्म शरीर के स्पन्दन आते हैं। एक शरीर है सूक्ष्म शरीर - तैजस शरीर है। यह आभामण्डल और तैजस विकिरणों का शरीर है। वहां वे स्पन्दन एक आकार लेते हैं, लेश्या बनते हैं, भावधारा बनते हैं । वे भाव हमारे मस्तिष्क के एक भाग हाइपोथेलेमस में आते हैं । उसके बाद मन को प्रभावित करते हैं। मन तो अचेतन है । प्रभावित करने वाला है भाव | वही मन को प्रभावित करता है । प्रेक्षाध्यान में मन और चित्त के भेद पर बहुत विचार किया गया है । मन जड़ है । वह संचालक नहीं है । वह संचालित होता है भाव के द्वारा । भाव चेतना है । चेतना के स्पन्दन और उसके साथ जो सूक्ष्म शरीर के स्पन्दन आते हैं, वे भाव बनते हैं, वे ही मन को संचालित करते हैं ।
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मनोभाव
आज मानसिक चिकित्सा पर बहुत बल दिया गया है। मेडिकल साइंस में मन जितना महत्त्वपूर्ण चित्त नहीं है । फ्रायड ने मन पर ही ज्यादा बल दिया । यूंग ने कहा - मन ( माइंड) से अधिक महत्त्वपूर्ण है चित्त (साइक) । यूंग ने साइक चित्त पर बल दिया । मनोविज्ञान में एक नया आयाम खुल गया । हजारों वर्ष पहले जैन दर्शन और पातंजल योग दर्शन ने भी इस पर बहुत विचार किया था । व्यक्ति में क्रोध और अहंकार है । वह छल, कपट और प्रवंचना करता है । वह लोभ, भय, घृणा और कामवासना का जीवन जीता है । यह भावजगत् बाहर से दिखाई नहीं देता, भीतर में रहता है, चित्त की चेतना में काम करता है और मन के माध्यम से प्रकट होता है । इसीलिए साहित्य में एक शब्द बन गया मनोभाव । जब भाव मन पर उतरता है, तब वह मनोभाव बन जाता है । साहित्यिक जगत् में और काव्यानुशासन में मनोभावों का बहुत विशद विवेचन किया गया है।
संघर्ष का जीवन
हमारा जीवन एक सतत संघर्ष का जीवन है । डार्विन ने कहा था - निरन्तर
भावात्मक स्वास्थ्य : १२३
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