SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सह-अस्तित्व और समन्वय ८७ साथ में रहना और प्रेमपूर्वक रहना बहुत बड़ी बात है । बहुत अधिक प्रेम हो और वे यदि कुछ काल तक साथ में रह जाएं तो प्रेम को टूटते देरी नहीं लगती । दो को साथ में रखकर देख लो कि उनका धनिष्ठ प्रेम कैसे खंड-खंड होकर बिखर जाता है। जब तक साथ नहीं रह लें तब तक घनिष्ठता बनी रहती है। साथ रहे कि घनिष्ठता टूटी। साथ रहकर घनिष्ठ प्रेम बनाए रखना, एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । क्योंकि आदमी पग-पग पर टकरा जाता है । यह टकराव स्वार्थ के कारण, मान्यताओं के कारण, धारणाओं के कारण होता है। उस स्थिति में सह-अस्तित्व और समन्वय की चेतना से ही वह तनाव या टकराव समाप्त हो सकता है । पुत्र वयस्क हो चुका था। उसने एक दिन पिता से कहा-'पिताजी ! आज से मैं आपके साथ भोजन नहीं करूंगा।' यह कथन तनाव पैदा करने वाला था । पर पिता समझदार था। उसने तत्काल कहा--'बेटा ! कोई बात नहीं है । इतने दिनों तक तुम मेरे साथ भोजन करते रहे तो आज से मैं तुम्हारे साथ भोजन करने लग जाऊंगा । कोई खास वात नहीं है।' पुत्र प्रसन्न हो गया । तनाव मिट गया। आक्रोश समाप्त हो गया । बात बनी की बनी रह गई । कोई अन्तर नहीं आया। पुत्र के मन में अहं जाग गया कि अब मैं पिता के साथ भोजन क्यों करू ? पिता ने उसके अहं को परोक्षतः पुष्ट करते हुए कह दिया---'मैं तुम्हारे साथ भोजन करने लग जाऊंगा।' यह है समन्वय की दृष्टि । समन्वय के दृष्टिकोण ने समस्या को सुलझा दिया। किन्तु आदमी में अनेक प्रकार के आग्रह होते हैं, पूर्वाग्रह और अभिनिवेश होते हैं। एक बात पकड़ ली तो फिर उसे छोड़ने का मन ही नहीं होता। जैसे मकोड़ा टूट जाता है , पर अपनी पकड़ नहीं छोड़ता, वैसे ही आदमी टूट जाता है, पर आग्रह को नहीं छोड़ता । मकोड़ा अज्ञानी है । उसकी चेतना विकसित नहीं है । आंदमी ज्ञानी है। उसकी चेतना बहुत विकसित है । वह पकड़ को, आग्रह को छोड़ भी सकता है। सामाजिक या पारिवारिक जीवन में आग्रह जितना कम होता है उतना ही जीवन सुखद और शांत रहता है । आग्रही व्यक्ति छोटी-सी बात को इतना तान देता है कि वह बड़ी समस्या पैदा कर देती है। सारी उलझनें पूर्वाग्रह के कारण पैदा होती हैं । दोनों ओर का पूर्वाग्रह स्थिति को बिगाड़ देता है । एक व्यक्ति यदि आग्रह को छोड़ देता है तो स्थिति सुलझ जाती है। रस्सो को दो व्यक्ति दोनों छोर को पकड़कर खींचते हैं । खींचते-खींचते रस्सी बीच में से टूट जाती है और दोनों व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy