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________________ एकला चलो रे आदमी को एक-जैसे विचार के लिए विवश कर डाला, उसे एक ढांचे में ढाल दिया तो वहां उसकी चेतना की विशेषता ही समाप्त हो जाएगी। हम कभी नहीं चाहते कि आदमी यांत्रिक बने, यंत्र-मात्र बन जाए और एक ढांचे में ढल जाये । हम चाहते हैं उसकी मौलिकता और विशेषता बनी रहे। वह अपने ढंग से स्वतंत्र रूप से सोचे और काम करे । आदमी-आदमी की भिन्न रुचि होती है। हम सबको एक रुचि वाले कैसे बनाएं ? भोजन की रुचि भी एक नहीं होती। परिवार के दस सदस्य हों तो दस प्रकार की रुचियां होंगी। किसी को करेला अच्छा लगता है और किसी को खराब । एक कहेगा कि करेले से मुह कड़वा हो गया और दूसरा जो चीनी की बीमारी से ग्रस्त है, कहेगा कि करेला बहुत उपयोगी है, लाभदायी है। किसी को मीठा अच्छा लगता है और किसी को नमकीन । हम रुचि की भिन्नता को कैसे मिटाएं ? हमारी इस दुनिया में रुचि की भिन्नता बनी रहेगी, आचार और विचार की भिन्नता बनी रहेगी। यह वास्तविकता है, इसे नहीं मिटाया जा सकता। ऐसी स्थिति में हमारे समक्ष दो ही मार्ग हैं । एक मार्ग यह है कि हम भिन्नता को सहन करें और दूसरा मार्ग है कि जहां भी भिन्नता है वहां हम संघर्ष करें। तीसरा कोई मार्ग नहीं है।' सबसे अच्छा मार्ग है--सहन करना, समन्वय करना और सह-अस्तित्व की चेतना को विकसित करना। ___ आदमी भिन्नता से कब तक लड़ेगा? कब तक संघर्ष करता रहेगा ? लडाई का कभी कहीं अन्त नहीं होता। अन्त तब होता है जब मनुष्य जाति ही समाप्त हो जाती है । लड़ते-लड़ते सब समाप्त हो जाएंगे तब लड़ाई स्वतः बन्द हो जायेगी। किन्तु यह समस्या का समाधान नहीं है। यदि मनुष्य जाति को जीना है, जीवित रहना है तो उसे कोई विकल्प हूंढ़ना होगा, मार्ग निकालना होगा। वह विकल्प और मार्ग है-सह-अस्तित्व और समन्वय की चेतना का विकास । इसके विकास के द्वारा ही असहिष्णुता की भावना को मिटाया जा सकता है। पंडित नेहरू ने एक राष्ट्र और दूसरे राष्ट्र के बीच सह-अस्तित्व की बात पर बल दिया था। आज हम उस बात की चर्चा न करें । पर क्या पारिवारिक जीवन में सह-अस्तित्व आवश्यक नहीं है ? बहुत जरूरी है, अत्यन्त आवश्यक है । परिवार में सह-अस्तित्व अत्यन्त अपेक्षित है। तभी शान्त-सहवास रह सकता है, अन्यथा नहीं। शांत-सहवास जीवन की सबसे बड़ी सफलता है ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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