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सह-अस्तित्व और समन्वय
सहिष्णुता का प्रतिपक्ष है-असहिष्णुता । असहिष्णुता ने मानवजाति के समक्ष अनेक समस्याएं पैदा की हैं। उनमें मुख्य हैं-साम्प्रदायिकता और जातीयता । इन दोनों ने मनुष्य को विभक्त कर डाला। 'एकैव मानुषी जाति:'--मनुष्य जाति एक है, यह शाश्वत धारणा खंडित हो गई। मनुष्य इतने टुकड़ों में बंट गया, जिसकी कोई गणना नहीं है। बंटना एकान्तत: बुरी बात नहीं है। बंटना उपयोगिता भी हो सकती है। आदमी उपयोगिता के लिए अनेक भेद-रेखाएं खींचता है। परन्तु आज कुछ विचित्र हो गया है । भेदरेखा की उपयोगिता नष्ट हो गई। परस्पर द्वेष और शत्रुता पैदा हो गई। एक आदमी दूसरे आदमी को शत्रु की दृष्टि से, विरोधी की दृष्टि से देखने लग गया। इससे मार-काट, हत्या बढ़ी। इसके पीछे एक ही चेतना काम करती है और वह है असहिष्णुता की चेतना।।
आदमी भिन्नता और विरोध को सहन नहीं कर पाता। यह सच है कि हम जिस दुनिया में जीते हैं, उसमे पग-पग पर भिन्नता है। विचार की भिन्नता है, आचार और रुचि की भिन्नता है। रहन-सहन और पहनावे की भिन्नता है, भोजन और आवास की भिन्नता है। सर्वत्र भिन्नता ही भिन्नता है। इस भिन्नता को समाप्त नहीं किया जा सकता। यह कभी संभव नहीं है कि सभी एक विचार के हो जाएं । जिस दिन सभी आदमी एक विचार के हो जायेंगे तो मनुष्य जाति का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। सबका एक विचार होने का अर्थ है-विचारों की स्वतंत्रता का समाप्त हो जाना, मनुष्य का यांत्रिक हो जाना । जब तक मनुष्य यांत्रिक नहीं होगा तब तक मनुष्य जाति का एक विचार हो जाना कभी संभव नहीं है। यह मनुष्य की अपनी विशेषता है कि उसके सोचने का तरीका अपना है, स्वतंत्र है । सभी आदमी अपनेअपने ढंग से सोचते हैं । यंत्र में और आदमी में यही तो अन्तर है । यन्त्र को ढांचे में ढाला जा सकता है। जड़ वस्तु को एक रूप में, समान रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, पर आदमी को कभी एक रूप में नहीं ढाला जा सकता । आदमी को एक रूप बनाने से उसकी सुन्दरता बढ़ेगी नहीं, नष्ट ही होगी
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