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एकला चलो रे
विकास होगा तब अनुशासन की शक्ति अपने आप आएगी। इस स्थिति में आदमी किसी बात को सुनकर तत्काल उत्तेजित नहीं होगा, असहिष्णु नहीं होगा । वह सोचेगा-'कहने वाला जो बात कह रहा है, उसका तात्पर्य क्या है, प्रयोजन क्या है।' यह सोचकर वह उस बात में से सारतत्त्व को ग्रहण कर, शेष को छोड़ देगा।
एक अंग्रेज ने महात्मा गांधी को पत्र लिखा। उसमें गालियों के अतिरिक्त कुछ था नहीं। गांधीजी ने पत्र को पढ़ा और उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया। उसमें जो 'आलपिन' लगा हुआ था, उसे निकालकर सुरक्षित रख लिया । वह अंग्रेज गांधीजी से प्रत्यक्ष मिलने के लिए आया । आते ही उसने पूछा-'महाराज ! आपने मेरा पत्र पढ़ा या नहीं ?' महात्माजी बोले-'बड़े ही ध्यान से पढ़ा है।' उसने फिर पूछा-'क्या सार निकाला आपने ?' गांधी ने कहा--'एक आलपिन निकाला है। बस, उस पात्र में इतना ही सार था । जो सार था, उसे ले लिया। जो असार था, उसे फेंक दिया ।'
जब सहिष्णुता का विकास होता है तब आदमी संतुलित हो जाता है । वह न प्रियता में फूलता है और न अप्रियता में कुम्हलाता है। कभी-कभी प्रियता भी धोखे में डाल देती है। कभी-कभी प्रियता भी खतरनाक हो जाती है । मित्रता के बहाने जितना धोखा दिया जा सकता है, उतना धोखा शत्रुता के बहाने नहीं दिया जा सकता । मित्र जितना खतरनाक हो सकता है उतना शत्रु खतरनाक नहीं हो सकता । प्रियता के बहाने आदमी जितना धोखा खाता है, उतना धोखा अप्रियता से नहीं दिया जा सकता । जब सहिष्णुता का विकास होता है तब प्रियता में भी विवेक करने की शक्ति जाग जाती है और अप्रियता में भी विवेक करने की शक्ति जाग जाती है।
सहिष्णुता के विकास का सूत्र है-शांतिकेन्द्र और ज्योतिकेन्द्र पर ध्यान करना, तद्विषयक चिन्तन और विचार करना ।
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