SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ अनुशासन और सहिष्णुता बदलने के साधनों पर पर हमारा ध्यान केन्द्रित होना चाहिए। उन साधनों के प्रस्तुतीकरण में विज्ञान का बहुत बड़ा हाथ रहा है। धर्म के पास केवल एक साधन बचा है। वह है-उपदेश । यह कटु सत्य है कि उपदेश से सौ में से पांच आदमी बदल सकते हैं। किसी व्यक्ति पर उपदेश की कोई बात चोट कर जाती है और वह बदल जाता है। वह चोट भीतरी रसायनों में परिवर्तन लाती है और तब आदमी का व्यवहार बदल जाता है। पर ऐसी चोट सारे उपदेश नहीं कर पाते, इसीलिए उपदेश से बदलने की बात बहुत कम रहती है । जो अधिक संवेदनशील होता है, वह किसी एक शब्द को इतनी गहराई से पकड़ लेता है कि भीतर में गहरा प्रहार लगता है। तब उसका भीतरी रसायन बदलता है। वह है उपादान कारण । जब उपादान बदलता है तब निमित्त अकिंचित्कर हो जाता है। एक समय था जब धर्म के क्षेत्र में अभ्यास चलता था, तब आदमी में परिवर्तन आता था । प्रश्न हुआ कि मन बहुत चंचल है, उस पर नियंत्रण कैसे किया जा सकता है ? उत्तर मिला-अभ्यास से उसको नियन्त्रित किया जा सकता है-'अभ्यासेन च कौन्तेय, वैराग्येण च गृह्यते ।' यहां नहीं कहा-'उपदेशे न च कौन्तेय !' बदलने का पहला साधन है-उपदेश और दूसरा है--वैराग्य । वैराग्य सब में नहीं हो सकता । अभ्यास सब कर सकते हैं। सौ में से सौ व्यक्ति अभ्यास कर सकते हैं और उसके परिणामस्वरूप बदल सकते हैं । अभ्यास किसी एक व्यक्ति या वर्ग के अधिकार की बात नहीं है। वह सबका है। सब उसको अपना सकते हैं। दो कोण हमारे सामने हैं । एक है-उपदेश का कोण, शिक्षा या शिक्षण का कोण, मस्तिष्कीय शिक्षण का कोण और दूसरा है—अभ्यास या प्रयोग का कोण । हम दोनों की कसौटी करें । अभ्यास से बदला जा सकता है, उपदेश से बदलना संभव नहीं है । कारण बहुत स्पष्ट है। हम सोचें कि आदतों का निर्माण कहां होता है ? आदतों का निर्माण शब्दों के आधार पर नहीं होता । आदतों का मूल होता है अवचेतन मन में और वे प्रकट होती हैं चेतन मन के स्तर पर । यह हमारा स्थूल मस्तिष्कीय स्तर है। हम उपदेश सुनते हैं । उपदेश के शब्द कानों के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुंचते हैं, उसे झंकृत कर समाप्त हो जाते हैं। वे वहां तक नहीं पहुंच पाते जहां आदतों का निर्माण होता है, जहां आदतें बनती हैं और बिगड़ती हैं। जो आदतें हमें 'प्रभावित करती हैं, वहां तक बेचारे शब्द पहुंच ही नहीं पाते। फिर शब्दों, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy