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अनुशासन और सहिष्णुता
पिता ने पुत्र से कहा-तुम इतिहास में अनुत्तीर्ण हो गए । लगता है तुमने मन लगाकर अध्ययन नहीं किया।
पुत्र ने कहा-पिताजी ! क्या करूं, मुझे उस काल के प्रश्न पूछे गए जब मैं पैदा ही नहीं हुआ था। उन प्रश्नों के उत्तर मैं कैसे देता?
मनुष्य की एक मनोवृत्ति है कि वह अपनी दुर्बलता को स्वीकार नहीं करता । वह दुर्बलता पर परिस्थिति का आवरण डाल देता है । अपनी दुर्बलता से बचने का सीधा उपाय है-परिस्थितिवाद । उतना कारगर उपाय दूसरा कोई नहीं है । आदमी कह देता है-'मैं क्या कर सकता था, परिस्थिति ही ऐसी थी।' परिस्थिति बहुत बड़ा बहाना है। __ परिस्थिति का अपना मूल्य है। मनुष्य परिस्थिति के चक्र के साथ जीता है। वह कभी अनुकूल होता है और कभी प्रतिकूल । वह निरन्तर चलता रहता है । सदा अनुकूलता ही रहे, ऐसा कभी नहीं होता और सदा प्रतिकूलता ही रहे, ऐसा भी कभी नहीं होता। किन्तु हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होना चाहिए कि जिसका जितना मूल्य है उसको उतना ही मूल्य दिया जाना चाहिए। परिस्थिति को मूल्य देना कोई बुरी बात नहीं है, किन्तु उसको अतिरिक्त मूल्य देना बुरी बात है। जहां परिस्थिति का मूल्य है वहां व्यक्ति का भी मूल्य है।
प्रत्येक कार्य की निष्पत्ति में दो कारण होते हैं-उपादान कारण और निमित्त कारण । घड़े का उपादान कारण है मिट्टी और निमित्त कारण हैकुम्भकार, पानी, हवा, दंड, चाक आदि । वस्त्र का उपादान कारण है-रूई
और निमित्त कारण है-किसान, खेत, बुनाई आदि । उपादान के बिना केवल निमित्त कारण कुछ नहीं कर सकते। रूई नहीं है तो मिल वस्त्रों का निर्माण नहीं कर सकते । मिट्टी नहीं है तो कुम्भकार घड़ा नहीं बना सकता । रूई हो और वस्त्र-निर्माता न हो तो भी वस्त्र नहीं बन सकता। दोनों का योग ही कार्य को निष्पन्न कर सकता है। उपादान भी जरूरी है और निमित्त भी जरूरी है। दूसरे शब्दों में मूल कारण भी हो ओर निमित्त कारण भी हो ।
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