________________
करुणा
७३
करते हैं । जिस किसी के पास थोड़ी भी सत्ता है, शक्ति है, वह क्रूरता का व्यवहार न करे, यह नहीं देखा जाता। सब दोषी हैं। कोई भी दोषमुक्त नहीं है । सत्ता न मिले, कुर्सी न मिले, तब तक सब ठीक हैं, नम्र हैं। जब सत्ता हस्तगत हो जाती है, फिर न जाने क्यों सारा व्यवहार बदल जाता है। नम्रता समाप्त हो जाती है । क्रूरता का व्यवहार होने लगता है, बड़प्पन की भावना पनपती है और फिर वह सबको प्रतिबिम्ब भूत मानता है।
एक हाकिम था। उसके पास एक चारण का केस आया । हाकिम ने निर्णय सुना दिया। चारण को लगा कि न्याय नहीं हुआ है । वह कवि तो था ही। उसने तत्काल एक कवित्त कह सुनाया
_ 'सुण हाकम संग्राम, आंधो मत हो यार ।
औरां रे दो चाहिजे, थारे चाहिजे चार ॥' 'हाकिम संग्रामसिंह ! सत्ता में अन्धे मत बनो। सुनो, और व्यक्तियों के लिए दो आंखें पर्याप्त हैं पर तुम न्याय की कुर्सी पर बैठे हो, तुम्हारे चार
आंखें चाहिए । दो आंखें बाहर को देखने के लिए, दो भीतर को देखने के लिए।' . जब सत्ता आती है तब आदमी अन्धा हो जाता है। वह न्याय के स्थान पर अन्याय अधिक करता है। सत्ता हो और शक्ति का दुरुपयोग न हो, धन हो और शक्ति का दुरुपयोग न हो तो मानना चाहिए कि मानवीय दृष्टिकोण का विकास हुआ है। तब समझना चाहिए कि करुणा की ज्योति, करुणा की दीपशिखा प्रज्वलित हुई है । यह होने पर ही अन्याय मिट सकता है, आदमी को आदमी समझकर न्यायपूर्ण व्यवहार कर सकता है। यह निश्चित है कि किसी के पास पैसा कम हो, किसी के पास पैसा अधिक हो, किसी के पास अधिकार अधिक हों और किसी के पास कम अधिकार हों। यह भेद बुद्धि और शक्ति के तारतम्य पर आधारित है। यह होता है। कभी ऐसा नहीं होता कि सब में बुद्धि और शक्ति समान हो । तरतमता बनी रहती है । पर अन्तत: आदमी आदमी है। यदि यह तथ्य अनुभूत होता है तो आदमी की संवेदनशीलता बढ़ती है और तब समस्याओं का समाधान हो सकता है।
सामाजिक स्वास्थ्य का दूसरा सूत्र है—करुणा। जीवन में करुणा का विकास हो, संवेदनशीलता की चेतना जागे और मनुष्य प्राणी जगत् के प्रति करुणार्द्र बना रहे । ऐसा होने पर ही क्रूरता समाप्त हो सकती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org