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________________ ७० एकला चलो रे समस्या का अन्त तभी होता है जब सही उपाय हस्तगत हो जाता है। एक घटित घटना है । एक बार महाराज शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास यात्रा कर रहे थे। रास्ते में ईख के खेत आये । उनके मन में ईख चूसने की भावना जागी और उन्होंने दो-चार ईख तोड़ लिये । खेत का मालिक देख रहा था । वह दौड़ा-दौड़ा आया । वह क्रोध के आवेश में था । उसे भान नहीं रहा । क्रोधान्ध व्यक्ति भान भूल जाता है, विवेक खो देता है । वह तब अकरणीय कार्य भी कर लेता है । खेत के मालिक ने उनको नहीं पहचाना । वह आवेश से अभिभूत था । उसने गुरु रामदास के दो-चार चांटे जड़ दिए । शिवाजी के पास बात पहुंची। उन्होंने उस किसान को बुलावा भेजा। वह सामने खड़ा-खड़ा कांप रहा है। पास में गुरु रामदास भी बैठे हैं। महाराज शिवाजी ने कहा-तूने बहुत बड़ा अपराध किया है । तूने मेरे गुरु को पीटा. है । बोल, तुझे क्या दंड दिया जाए ? वह किसान थर-थर कांप रहा है । अब वह क्या बोले ? पहले वह क्रोध के आवेश में था, अब वह भय के आवेश में है । आदमी क्रोध के आवेश में अनर्थ कर लेता है, पर जब अवांछनीय परिणाम भुगतने का अवसर आता है तब भय से कांपने लग जाता है। क्रोध का बड़ा परिणाम है-भय और प्रकम्पन । वह कांप रहा था। शिवाजी आवेश में थे। गुरु का अपमान असह्य हो गया था। शिवाजी ने कहा--'इसने जघन्य अपराध किया है । इसको फांसी दे दी जाए।' गुरु रामदास ने सुना। उन्होंने कहा-शिवा ! ऐसा नहीं हो सकता। तुम इसको दंड नहीं दे सकते । इसने मुझे मारा है, मैं ही इसको दंड दूंगा। शिवाजी मौन हो गए । वे गुरु के समक्ष क्या बोलते ? उन्होंने कहागुरुदेव ! आप ही इसे दंड दें। रामदास ने कहा--मेरा कथन तुम्हें स्वीकृत होगा ? -हां, गुरुदेव ! जो कुछ आप कहेंगे, मैं उसे स्वीकार करूंगा । रामदास ने कहा-इस गरीब किसान ने मुझे पीटा है मैं उसके पीटने के कारण को जानता हूं, समझता हूं। इसे इस अपराध के फलस्वरूप पांच बीघा जमीन दान में दे दी जाए। रामदास के कथन को सुनकर सब अवाक रह गए। स्वयं शिवाजी किंकर्तव्यविमूढ़ थे। चांटे मारने वाले को पारितोषिक रूप पांच बीघा जमीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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