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एकला चलो रे
इतना क्रूर हो सकता है ? सामान्य से अपराध में आदमी को तेल के कड़ाहों में उबालना, कानों में गरम सीसा डालना, आंखों में गरम-गरम शलाकाएं डालना, प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा अंगच्छेद करना, शिश्न को काटना, जीवित अवस्था में भीतों में चिन देना – ये भयानक दंड मनुष्य की क्रूरता के द्योतक हैं । आज इनकी कल्पना भी भयावह होती है ।
जब समाज का परिष्कार हुआ, आदमी के विचार बदले, उसमें मानवीय चेतना का जागरण हुआ, तब दंडनीति में भी परिवर्तन और परिष्कार हुआ । आज भी दंडनीति को मान्यता प्राप्त है, पर उसमें से क्रूरता के अंश निकाल दिए गए हैं, निकाले जा रहे हैं । मृत्युदंड को समाप्त करने का आन्दोलन चल रहा है और अनेक राष्ट्रों ने मृत्युदंड को समाप्त कर दिया है । सभ्य समाज में फांसी या मृत्युदंड शोभा नहीं देता । आज आदमी का मन परिष्कृत हुआ है । आदमी चिन्तनशील और विचारशील बना है । आजन्म कारावास दंड ही पर्याप्त माना जाता है । फांसी आदि दंड अमानवीय कृत्य माने जाते हैं । आज कारावासों को सुधारगृहों में बदला जा रहा है। हम अनेक कारावासों में गए। वहां का रहन-सहन और बन्दियों के साथ बर्ताव देखा, बंदियों की शिल्पकला और वस्त्र-निर्माण कला देखी, बड़ा आश्चर्य हुआ । बंदियों का जीवन निर्माण में लगा हुआ है । ध्वंस से चिपटी उनकी आस्थाएं आज निर्माण में सुदृढ़ हो रही हैं। यह परिवर्तन उनके भावी जीवन का सम्बल है । उनके मानसिक परिवर्तनों के लिए उपाय किए जा रहे है, जिससे कि उनकी क्रूरता मिटे, अपराध करने की उनकी क्रूरता मिटे, अपराध करने की भावना समाप्त हो । उनमें मानवीय चेतना जागे, करुणा जागे । यह सब 'राष्ट्रों को मान्य हो चुका है कि अपराधियों के साथ भी मानवीय व्यवहार होना चाहिए और दंडनीति में जो अमानवीय तथ्य हैं, उनको निकाल देना चाहिए । यदि कहीं कोई क्रूरता का व्यवहार होता है, तो समूचे विश्व में 'उसकी भर्त्सना होती है, निन्दा और तिरस्कार होता है । यदि सरकार भी क्रूरता का व्यवहार करती है तो सारा राष्ट्र उसके कृत्य की निन्दा करता है, फिर क्रूरता चाहे अपराधी के प्रति हो या अपने अधीनस्थ किसी कर्मचारी के प्रति हो । कभी-कभी यह इतनी जटिल समस्या बन जाती है कि सरकार ही उलट दी जाती है ।
शौर्य, पराक्रम या कर्तव्यनिष्ठा एक भिन्न धारा है, और क्रूरता उससे भिन्न है । दोनों एक नहीं हैं । अगर दोनों को एक मान लेते हैं तो भ्रम पैदा
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