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करुणा
दिया जाने लगा। राज्य-व्यवस्था का विकास हुआ । राजा हुआ, राज्यतंत्र पनपने लगा, दंडशक्ति का विकास हुआ।
पाषाण युग बीत चुका था । धातु युम आया। धातुओं से अनेक शस्त्रास्त्र बने । उन शस्त्रों के द्वारा क्रूर दंड भी चलने लगे । अपराधी के हाथ काटना, पैर काटना, आंखें निकालना-ये दंड विकसित हुए। इसके साथ-साथ यह सिद्धान्त भी विकसित होने लगा कि दंड-भय के बिना समाज स्वस्थ नहीं रह सकता । यह एक सीमा तक सच भी है क्योंकि सभी मनुष्य आत्मानुशासित नहीं होते । यदि सभी व्यक्ति आत्मानुशासित हों तो दंड की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती। जहां सब अपने नियंत्रण करने वाले होते हैं, वहां दंड किसको दें? क्यों दें? परन्तु सभी लोग आत्मानुशासित नहीं होते । विभिन्न रुचि के लोग हैं । विभिन्न आवार-विचार के लोग हैं । सबका मस्तिष्कीय विकास समान नहीं होता। कुछ लोगों का मस्तिष्क बहुत विकसित होता है और कुछ लोगों का कम । वैसे लोग सभ्यता, शिष्टता और सामाजिक मूल्यों को भी नहीं जानते । जिनका दृष्टिकोण मानवीय मूल्यों पर आधारित नहीं होता, उनका निग्रह कर पाना, उन्हें अपराध से रोकना सहज-सरल नहीं है। उनका निग्रह दण्डशक्ति से ही किया जा सकता है । ___ दंडशक्ति के विकास की यह कहानी है। दंड न हो तो समाज में 'मात्स्यन्यायः प्रवर्तते-'मात्स्य न्याय का प्रवर्तन होता है। जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, वैसे ही बड़ा आदमी छोटे आदमी को, शक्तिशाली आदमी कमजोर आदमी को खा जाएगा, उसे हड़प लेगा। बलवान् दुर्बल पर हावी हो जाएगा। इस 'मात्स्य न्याय' को समाप्त करने के लिए दंडशक्ति का विकास अत्यन्त आवश्यक है। यही आधार बना दंडशक्ति के विकास का । किन्तु इसका विकास इतना हुआ कि जो दंड सामाजिक प्राणी को निग्रह करने के लिए था वह स्वेच्छाचारिता और क्रूरता में बदल गया। शासक की जो इच्छा होती, जैसी इच्छा होती, अपराधी को दंड दे दिया जाता । कानून और न्याय सब पीछे रह जाते। किसी को अधिकार की बात कहने की तब मंजूरी नहीं होती। जैसा जंचा, वैसा दंड दे दिया। उसके लिए न कोई मानदंड और न कोई नियम-उपनियम । शासक की केवल स्वेच्छाचारिता या क्रूरता ही वहां काम करती । प्राचीन साहित्य में दंड के जो विधान और प्रयोग मिलते हैं, उनको पढ़कर आदमी कांप उठता है, उसका हृदय रोने लग जाता है, वह बरबस चिल्ला उठता है क्या आदमी
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