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एकला चलो रे
दंडनीति का इतिहास बहुत पुराना है। समाज की उत्पत्ति के साथसाथ दंडनीति का विकास हुआ। प्रागैतिहासिक युग में आदमी का जीवन भिन्न प्रकार का था । वह पाषाण युग में जी रहा था। वह युग का आदिकाल था। उसमें न समाज बना था और न कुछ और । व्यक्ति व्यक्ति था। वह खेती करना भी नहीं जानता था । न शस्त्र थे, न मकान थे और न वस्त्र । सब कुछ प्राकृतिक । एक प्रकार से पशु का जीवन जी रहा था आदमी। आदमी की आवश्यकताएं बहुत कम थीं। उनकी पूर्ति वृक्षों से पूरी हो जाती थी। जो सहज मिलता, उससे वह अपना जीवन-यापन कर लेता था।
जब कुछ विकास हुआ, चेतना जागृत हुई, तब परस्पर छीना-झपटी होने लगी। एक-दूसरे के अधिकार को हड़पने की बात होने लगी। लूट-खसोट होने लगी। क्रूरता बढ़ने लगी । इस स्थिति में व्यवस्था की बात सोची गई। उस समय हाकार नीति का प्रवर्तन हुआ । जब कोई व्यक्ति दूसरे के अधिकार पर आक्रमण करता, तब उसे बुलाकर कहा जाता""हा ! तूने ऐसा किया।' यह वाक्य उसके लिए मृत्युदण्ड से भी अधिक घातक होता। वह फिर वैसा कार्य कभी नहीं करता।
युग आगे बढ़ा । समाज-विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ी। मनुष्य में लोभ बढा, संग्रह की भावना का विकास हुआ। अपराध बढ़ने लगे। 'हाकार' नीति के स्थान पर 'माकार' नीति का प्रवर्तन हुआ। कोई भी अन्याय करता, अनुचित कार्य करता तो उसे बुलाकर कहा जाता-ऐसा मत करो। बस, वह व्यक्ति इस वाक्य से आहत होकर वैसे कार्यों से विरत हो जाता।
युग और आगे बढ़ा । अपराध भी वृद्धिंगत हुए । हाकार और माकार.... दोनों नीतियां कार्य कर नहीं रहीं, तब धिक्कार नीति का प्रवर्तन हुआ । 'धिक्कार है तुझे, तूने ऐसा कार्य कर डाला'-यह उस व्यक्ति के लिए बहुत बड़ा दंड होता था।
दंड अपने आप में छोटा या बड़ा नहीं होता । वह मनुष्य की भावना पर आधारित होता है । एक आदमी को 'धिक्' कहना बहुत बड़ी बात हो जाती है और एक आदमी की ऐसी मनोवृत्ति होती है कि उसे हजार बार धिक्कारने पर भी उसमें कोई अन्तर नहीं आता । ___ज्यों-ज्यों युग आगे बढ़ा, मनुष्य की आवश्यकताएं बढ़ीं । हाकार, माकार
और धिक्कार-तीनों नीतियों का उपयोग समाप्त हो गया। ये दंड दंड नहीं रहे। आदमी और अधिक कर होता गया। तब उसे कारावास का दंड
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