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प्रामाणिकता
यह है व्यवहार की अप्रामाणिकता। एक आदमी के साथ कैसा व्यवहार, अपने मित्र के साथ कैसा व्यवहार, अपने पड़ोसी के साथ कैसा व्यवहार, एक सामाजिक व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार--इसे जानना जरूरी है। व्यवहार की प्रामाणिकता होती है तो समाज में आश्वासन होता है और समाज सुखी होता है। हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से आशंकित रहता है कि न जाने यह मेरे साथ कैसा व्यवहार करे । आज स्थिति विकट बन गई है। कुछ लोग पूछते हैं कि आजकल कमाने के लिए जाते हो और परदेश में बहुत ज्यादा रहते हो । देश में कम आते हो। एक भाई ने कहा--आज का जमाना नहीं रहा । दो दिन के लिए भी मुनीम के भरोसे छोड़कर आयें, फिर मुनीम का ही पता नहीं मिलता, और-और बातों का तो पता मिलता ही नहीं। इतना अविश्वास पैदा हो गया। जिस समाज में पारस्परिक अविश्वास हो जाता है, वह समाज कभी सुखी जीवन नहीं जी सकता । सुख का सबसे पहला सूत्र होता है—विश्वास ! आज विश्वास की प्रतिष्ठा नहीं रही। पति पत्नी का विश्वास नहीं करता, पत्नी पति का विश्वास नहीं करती। हमारी दुनिया अविश्वास पर आधारित हो गई है। इस अविश्वास के कारण शांति ही समाप्त हो गई।
प्रामाणिकता के तीन सूत्र हैं-वचन की प्रामाणिकता, अर्थ की प्रामाणिकता और व्यवहार की प्रामाणिकता। जिस समाज में प्रामाणिकता का विकास होता है, वह समाज आगे बढ़ता है, उन्नति करता है । जिस समाज में प्रामाणिकता नहीं होती, उस समाज का भाग्य हमेशा खतरे में झलता रहता है । समाज में सबसे पहला आश्वासन का सूत्र होता है-प्रामाणिकता। उसको भी जब खण्डित कर दिया जाता है तो समाज कैसे सुख की सांस ले सकता है और कैसे भरोसे के साथ जीवन-यापन कर सकता है ? यह बात कुछ समझ में नहीं आती। पर पता नहीं आज के इस बौद्धिक युग में, वैज्ञानिक युग में और प्रगतिशील विचारणा के युग में इतनी अप्रामाणिकता की बात क्यों चलती ही जा रही है ? आश्चर्य तो होता है । सोचने में जरा संकट भी पैदा है कि यह विरोधाभास क्यों चल रहा है। एक ओर वैचारिक धरातल पर, तार्किक धरातल पर, बौद्धिक धरातल पर बहुत प्रगति की है मनुष्य ने
और जहां अन्तःपक्ष का, भावना पक्ष का प्रश्न था उस पक्ष में काफी प्रगति हुई है । उल्टा चला है। हम इस बात पर निश्चित विश्वास करें कि प्रामाणिकता के बिना कोई भी समाज प्रगतिपथ पर नहीं बढ़ सकता।
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