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प्रामाणिकता
५५.
लाख रुपया । आज तो लाख रुपयों का बहुत मूल्य नहीं है, पर कल्पना करें आज से पांच सौ वर्ष पूर्व लाख रुपये का कितना मूल्य था । बड़ी विचित्र स्थितियां थीं। कल ही एक बहुत बड़े व्यापारी ने, जो आज करोड़पति है, बात बताई कि वर्ष में बारह सौ-तेरह सौ रुपया कमाते थे और घर का खर्च अच्छी तरह चल जाता, कोई कठिनाई नहीं थी। अच्छी तरह से खाते-पीते, घूमने भी चले जाते । आज तो कल्पना की बात लगती है कि बारह सौ, तेरह सौ रुपयों में पूरे वर्ष का खर्च चल जाता और आराम से जीवन बिताते । एकमात्र काल्पनिक कहानी जैसी बात लगती है । उस जमाने में एक लाख रुपया किसी से लेना कितनी बड़ी बात थी। भैंसाशाह एक बड़े सेठ के. पास गया । जाकर कहा--लाख रुपया चाहिए । पूछा-आपका नाम ? भैंसाशाह प्रसिद्ध नाम है । सेठ ने कहा कि आप ले लें, लेकिन फिर भी मैं चाहता हूं कि कुछ आप अनुबन्ध कर लें तो अच्छा होगा । उसने कहाकोई जरूरत नहीं, कोई आवश्यकता नहीं । अगर आपको विश्वास न हो तो यह मूंछ का एक बाल, भैंसाशाह की मूंछ का एक बाल रख लें और लाख रुपये दे दें। तत्काल लाख रुपये निकालकर दे दिये । काम हो गया । आज लगता है कि मूंछ के बाल की बात दूर है, पूरी मूंछ भी रख दें तो शायद लाख रुपया वापस नहीं आये । बड़ा कठिन काम है ।
तीन व्यक्ति होटल में आये, भोजन किया और बिल चुकाने का प्रश्न आया तो तीनों परस्पर लड़ने लगे। होटल के मालिक ने कहा-क्यों लड़ते हो ? उन्होंने कहा-लड़ाई इस बात की है कि यह कहता है जो हमारी प्रतियोगिता में जीतेगा वही बिल चुकायेगा । क्या है तुम्हारी प्रतियोगिता? दौड़ की हम प्रतियोगिता कर रहे हैं। जो व्यक्ति सबसे पहले आयेगा वह बिल चुकायेगा। इसलिए बिल चुकाने की अभी बात नहीं, अब तो देखते हैं कौन फर्स्ट आयेगा। होटल के मालिक ने कहा-यह तो बहुत अच्छी बात है, हम भी देखेंगे । करो दौड़ । दौड़ शुरू हुई । तोनों ही दौड़ने लगे । दौड़े तो दौड़ते गये कि मालिक प्रतीक्षा करता ही रहा, कौन फर्स्ट आता है ?
यह सब क्यों होता है ? जहां हमारे वचन का कोई मूल्य नहीं होता, वाणी का मूल्य नहीं होता, इस सरस्वतीदेवी की प्रतिष्ठा को खो चुकता है आदमी, तब कोई भी अर्थ नहीं होता। हमारे जीवन का सबसे मूल्यवान साधन है हमारी वाणी । वाणी ने समाज की रचना की है। यदि वाणी न हो तो समाज नहीं बन सकता । समाज के सारे सम्पर्कों में, समाज के सारे
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