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________________ ५२ एकला चलो रे नहीं रहता । हमारे विचार संक्रमणशील है । वे दुनिया के अन्तिम छोर तक पहुंच जाते हैं । हमारे कार्य, हमारी वाणी, हमारे विचार – ये सभी संक्रमणशील तत्त्व हैं । पूरा वातावरण, पूरा वायुमण्डल ऐसे संक्रामक तत्त्वों से भरा पड़ा है जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती । ये आकाशिक रेकार्ड, पूरा आकाश इतना बड़ा रेकार्ड है, इतना बड़ा भण्डार और खजाना है कि कभी इसका पार नहीं पाया जा सकता । इस आकाश में अतीत में हुए अरबों, खरबों, असंख्य व्यक्तियों की आकृतियां आज भी विद्यमान हैं । इस आकाश में असंख्य काल पहले हुए मनुष्य की वाणियां आज भी विद्यमान हैं और इस आकाशमण्डल में मनुष्यों के चिन्तन आज भी विद्यमान हैं इस परिस्थिति में हम कैसे कल्पना कर सकते हैं कि कोई व्यक्ति नितान्त अकेला हो सकता है । वह नितान्त वाली बात कभी सम्भव नहीं होती । अकेलेपन की एक सीमा है और समाज की एक सीमा है और हमारे जीवन के जितने मूल्य हैं. वे सारे सापेक्ष मूल्य हैं । एक बुढ़िया ने ढाबा खोल रखा था । जो यात्री आते-जाते, उन्हें भोजन कराती और रात्रि को विश्राम के लिए स्थान की व्यवस्था भी करती । एक यात्री आया । ठहरा । भोजन किया। सोने का समय हुआ । उसने पूछा- क्या लोगी ? बुढ़िया ने कहा खाट पर सोने के चार आने । उसने सोचा - खाट पर सोने के चार आने लगेंगे। यह व्यर्थ का खर्च है । नीचे आंगन में लेट जाऊंगा । उसने कहा- मुझे खाट नहीं चाहिए, मैं तो ऐसे ही लेट जाऊंगा । बुढ़िया ने कहा- आंगन में लेटोगे तो एक रुपया । बड़ी अजीब बात कि खाट के चार आने और आंगन पर लेटने का एक रुपया । यह बात समझ में नहीं आयी । बुढ़िया ने कहा -- खाट की सीमा है कि तुम इतना स्थान रोकोगे । नीचे लेटोगे तो पता नहीं सारा आंगन ही रोक लोगे मेरा । कहां सोओगे कोई सीमा ही नहीं है । सीमा का अपना मूल्य होता है और असीमा का अपना मूल्य । प्रत्येक बात का मूल्य सापेक्ष होता है । हम निरपेक्ष दृष्टि से मूल्य अंकित नहीं कर सकते । व्यक्ति का अपना मूल्य होता है और समाज का अपना मूल्य । वैयक्तिक स्वास्थ्य और सामाजिक स्वास्थ्य — ये ध्यान के दो कोण हैं | जागरूकता, मानसिक सन्तुलन, आत्म-निरीक्षण, संकल्पशक्ति का विकास और एकाग्रता की शक्ति का विकास - ये वैयक्तिक स्वास्थ्य के कोण हैं । इनकी चर्चा मैंने पिछले पांच प्रवचनों में की है। अब आगे के प्रवचनों में मुझे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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