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संकल्प - शक्ति का विकास
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इस हिंसा को समाज रोक नहीं सकता। एक बार हम लोग दिल्ली में थे । हिन्दुस्तान पाकिस्तान का युद्ध चल रहा था । हिन्दू महासभा भवन में हमारा चातुर्मास था । उस समय दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर आये । उन्होंने कहा कि आचार्यजी ! अभी तो आपके हिसाब से बहुत बुरा हो रहा है । कितने लोग मर रहे हैं, कितनी हिंसा हो रही है । आप तो जैन हैं, अहिंसा में विश्वास करने वाले । कितना बुरा हो रहा है । कैसा लगता होगा ! आचार्यश्री ने कहा - 'मुझे तो कुछ भी ऐसा नहीं लगता । कोई अस्वाभाविक नहीं लगता ।' यह कैसे ? आप तो अहिंसा में विश्वास करते हैं ? आचार्यश्री ने कहा- यह मेरे हाथ में कपड़ा है । ये कपड़े के दो छोर हैं— एक यह और एक वह । एक है परिग्रह का छोर और एक है हिंसा का छोर । अगर आप परिग्रह को रखते हैं और फिर हिंसा से बचना चाहते हैं तो मैं मानता हूं कि आपकी कायरता है । आपका अज्ञान है । जो आदमी परिग्रह रखेगा, संग्रह रखेगा, उसे परिग्रह की सुरक्षा के लिए हिंसा भी अनिवार्यत: करनी पड़ेगी । यदि आप अपरिग्रही हो जायें और फिर हिंसा करें तो मुझे अटपटा लगेगा । फिर कैसे हिंसा करेंगे ? परिग्रह और हिंसा—ये एक ही कपड़े के दो छोर हैं । एक ही वस्तु के दो छोर हैं । कोई संग्रह तो करे-धन का संग्रह करे, मकान का संग्रह करे, पदार्थ का संग्रह करे, जमीन का संग्रह करे, और यह यह कहे कि मैं हिंसा नहीं करूंगा तो यह मूर्खतापूर्ण बात है, विरोधाभास है । परिग्रही को हिंसा करनी पड़ेगी, अपनी सुरक्षा करनी पड़ेगी । आप अपरिग्रही बन जायें, सब कुछ छोड़ दें, फिर हिंसा आपके लिए प्राप्य ही नहीं होगी ।
परिग्रह और हिंसा दो बात नहीं है । एक भ्रम है कि जैन लोग अहिंसा को परम धर्म मानते हैं । मैं ऐसा नहीं सोचता । मैं यह सोचता हूं कि भगवान् महावीर ने अपरिग्रह को परम धर्म कहा था, अहिंसा उसके बाद दूसरे नम्बर में है । अपरिग्रह होगा, तब अहिंसा होगी । जब अपरिग्रह नहीं है, फिर हिंसा छोड़ने की बात प्राप्त ही नहीं होगी । परिग्रह के लिए हिंसा होती है, हिंसा के लिए परिग्रह नहीं होता । यह सिद्धान्त समझ में आ जाये तो आज की आर्थिक समस्याएं, सामाजिक समस्याएं सुलझ सकती हैं । किन्तु यह मान बैठें कि परिग्रह तो चाहे जितना करो, अहिंसा व्रत स्वीकार करेंगे, यह संभव नहीं TM
लगता ।
अणुव्रत का पहला व्रत है कि संकल्पपूर्वक हिंसा नहीं करूंगा। यानी
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