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एकला चलो रे
समर्थन नहीं कर रहा हूं, पर कभी-कभी बुराई करने के लिए आदमी विवश हो जाता है । वह अनिवार्य स्थिति में फंस जाता है। पर क्या सब लोग बुराई करने वाले अनिवार्य स्थिति के कारण करते हैं ? ऐसा नहीं है । अपना स्वार्थ, अपना लालच, अपनी आकांक्षा, अपनी दुर्भावना के कारण करते हैं । यदि इतना विवेक भी स्पष्ट हो जाये कि कोई काम अनिवार्यतावश करना पड़ा तो समाज उसे क्षमा भी कर सकता है कि ऐसी स्थिति में बेचारा क्या करता, और कोई उपाय नहीं था। किन्तु अनिवार्यता के बिना, अपनी दुर्बलता के कारण, अपनी स्वार्थ-भावना के कारण कितना काम करना पड़ता है और कितना काम लोग करते हैं। इसलिए आवश्यक है-अस्वीकार की शक्ति का विकास।
दूसरी बात है व्रत की शक्ति का विकास । भारतीय सभ्यता और संस्कृत में व्रत का बहुत बड़ा महत्त्व था। हर धर्म ने व्रत की शक्ति का विकास किया था । व्रतों का बड़ा महत्त्व हुआ । सबने व्रतों का विधान किया
और सब लोग व्रतों को स्वीकार करते हैं। यहां दीक्षा शब्द बहुत प्रचलित रहा । दीक्षा का अर्थ ही था-व्रतों का स्वीकार । यज्ञोपवीत से लेकर विभिन्न संस्कारों में, संन्यास में, मनित्व में, कहीं भी कोई जाये, व्रत का विधान उसके लिए होता था। आज वह व्रत का विधान भी छूट गया। व्रत की शक्ति भी कम हो गई । आपने अणुव्रत का नाम सुना होगा । अणुव्रत का आन्दोलन चला । आचार्यश्री तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन चलाया। इसीलिए कि हमारी व्रत की शक्ति का विकास हो । अणुव्रत आन्दोलन असाम्प्रदायिक आन्दोलन । उसका किसी सम्प्रदाय ले संबंध नहीं है । जैन हो, वैष्णव हो, सनातनी हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, बौद्ध हो-किसी भी धर्म को मानने वाला हो, वह अणुव्रती बन सकता है। उसके साथ कोई उपासना की पद्धति नहीं जुड़ी है। जहां उपासना की पद्धति होती है वहां तो सम्प्रदाय का अपना-अपना भेद हो जाता है। किन्तु उपासना की पद्धति नहीं । केवल आदमी चरित्रवान कैसे रह सके और उसका सामाजिक चरित्र कैसे अच्छा रह सके, नैतिक जीवन जी सके, इसीलिए अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन हुआ। उसके मूल व्रत हैं—संकल्पपूर्वक हत्या नहीं करूंगा। हत्या हो जाती है, जीव मर जाता है, हिंसा हो जाती है। प्रमाद से हिंसा होती है। आदमी चलता है, जीव मर जाता है । आक्रामक हिंसा का प्रतिकार करना होता है। किसी ने आक्रमण कर दिया, प्रतिकार करने की स्थिति आती है, हिंसा होती है।
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