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________________ एकला चलो रे जीवन चला रहे हैं । हमें अतीन्द्रिय चेतना प्राप्त नहीं है। पारदर्शी चेतना प्राप्त नहीं है, यह बहुत अच्छा है हमारे लिए। अगर पारदर्शी चेतना प्राप्त हो जाये और उसमें अपनी कुरूपता की झांकी मिल जाये तो पता नहीं आदमी का क्या हो जाये । जीना भी कठिन हो जाता है। एक कहानी है । एक गुरु के पास कोई डण्डा था। उस डण्डे में यह विशेषता थी कि जिधर घुमाओ उधर उस व्यक्ति की सारी खामियां दीखने लग जाएं । अच्छा साधन मिल गया। शिष्य को दे दिया डण्डा । कोई भी आता, शिष्य डण्डा उधर कर देता। सब कुरूप-ही-कुरूप सामने दीखते । अब भीतर में कौन कुरूप नहीं है ? हर आदमी कुरूप लगता । किसी में क्रोध ज्यादा, किसी में अहंकार ज्यादा, किसी में घृणा का भाव, किसी में ईर्ष्या का भाक, किसी में द्वेष का भाव, किसी में वासना, उत्तेजना। हर आदमी कुरूप लगता। बड़ी मुसीबत, कोई भी अच्छा आदमी नहीं आ रहा है । उसने सोचा, गुरुजी को देखू, कैसे हैं ? गुरु को देखा तो वहां भी कुरूपता नजर आयी। गुरु के पास गया और बोला कि महाराज ! आप में भी यह कमी है, यह कमी है । गुरु ने सोचा कि यह मेरे ऊपर भी प्रयोग हो गया । मेरे अस्त्र का मेरे पर ही प्रयोग ! बताता गया, कई दिन तक बताता गया । मुरु आखिर गुरु था। उसने कहा कि डण्डे को इधर-उधर घुमाते हो, कभी अपनी ओर जरा घुमाओ। घुमाया। देखा तो पता चला कि गुरु में तो केवल छेद ही थे, यहां तो बगारे के बगारे पड़े हैं । बड़ा असमंजस में पड़ गया। यह अच्छा है। हमारी इन्द्रियों की शक्ति सीमित है । बहुत कम सुन पाते हैं । दूर की बात नहीं सुन पाते । भीतर की बात नहीं देख पाते । बहुत अच्छा है, अगर कान की शक्ति बढ़ जाये तो आज की दुनिया में इतना कोलाहल है कि नींद लेने की बात ही समाप्त हो जाएगी। देखने की शक्ति बहुत पारदर्शी बन जाये तो इतने बीभत्स दृश्य हमारे सामने आयेंगे कि फिर आदमी का जीना ही मुश्किल हो जायेगा। कुरूपता चेतना के भीतर होती है । कुरूपता है और अच्छा यह हुआ कि हमारी मूर्छा भी है । जहां कुरूपता है वहां हमारा अज्ञान भी है, वहां हमारी मूर्छा भी है । अज्ञान को तोड़ें, मूर्छा को तोड़ें और कुरूपता बनी रहे तो भयानक स्थिति बन सकती है। यह प्रकृति की कोई ऐसी व्यवस्था है कि हमारी मूर्छा भी नहीं टूट पा रही है । हमारा अज्ञान का आवरण भी नहीं टूट पा रहा है तो कुरूपता भी निभ रही है। बराबर निभ रही है। अगर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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