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संकल्प - शक्ति का विकास
दरवाजा खोलना है। आज एक छोटा बच्चा भी दरवाजा खोल सकता है । किन्तु आदिम युग के आदमी को कहा जाए कि दरवाजा खोलो तो वह सामने आकर खड़ा हो जाएगा। समझ ही नहीं पाएगा कि क्या करना है । दरवाजा देखा ही नहीं, कल्पना ही नहीं कि मकान भी होता है। दरवाजा भी होता है । बन्द भी किया जा सकता है । खोला भी जा सकता है । जिस व्यक्ति को जिसकी कल्पना नहीं होती, वह व्यक्ति वह काम नहीं कर सकता । आज से दो सौ वर्ष, चार सौ वर्ष पहले के आदमी को कहा जाये कि घड़ी देखो, क्या देखेगा । कुछ भी पता नहीं चलेगा । घड़ी वही थी कि नीचे रेत गिर रही है । पानी नीचे गिर रहा है और घंटा बज रहा है । एक मिनट का हिसाब लगाना कठिन था ।
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हमारी चेतना दो प्रकार की होती है । एक है पदार्थनिष्ठ चेतना और दूसरी है स्वनिष्ठ चेतना । चेतना का विकास पदार्थ के साथ-साथ होता है, पदार्थ का विकास और चेतना का विकास। दूसरा चेतना का विकास स्वनिष्ठ होता है, अन्तनिहीत होता है । जितनी कम वस्तुएं थीं, बाह्य जगत् का हमारा ज्ञान भी कम था । वस्तुओं का जितना विकास हुआ, हमारा ज्ञान भी बढ़ गया | स्वगत चेतना का विकास - यह एक बिलकुल आन्तरिक प्रश्न है | पदार्थनिष्ठ चेतना के लिए चेतना को बदलने की जरूरत नहीं होती, रूपान्तरित होने की जरूरत नहीं होती, केवल जानकारी बढ़ाने की जरूरत होती है, आकलन की जरूरत होती है । हमारी शिक्षा आकलनात्मक शिक्षा है । बाहर से आकलन कर लेती है। आंकड़े बढ़ जाते हैं । किन्तु भीतर से इसे बदलने की जरूरत नहीं होती । यही कारण है कि पदार्थनिष्ठ ज्ञान बहुत बढ़ जाने पर भी चेतना में जो रूपान्तरण होना चाहिए, जो परिवर्तन होना चाहिए, वह नहीं होता । एक बड़ा वैज्ञानिक, एक बड़ा प्रोफेसर, एक बड़ा दार्शनिक, एक बड़ा तत्त्ववेत्ता अपनी आन्तरिक चेतना में उतना ही कुरूप मिल सकता है जितना एक अनपढ़ आदमी मिलता है । चेतना की कुरूपता और सुन्दरता दोनों हैं । भीतर में कौन व्यक्ति कुरूप नहीं है, कहना बड़ा कठिन है | हम लोग सुखी हैं, इसलिए कि केवल इन्द्रियों के सहारे अपना.
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