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एकला चलो रे
का । हम ध्यान की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं । शिक्षा का मतलब केवल जानना नहीं । शिक्षा का अर्थ है - अभ्यास करना, प्रयोग करना, बार-बार दोहराना । यह दोहराने की बात कर रहे हैं । दोहराते - दोहराते एक बिन्दु ऐसा आता है कि हम उस पर पहुंच जाते हैं और हमारी मंजिल तय हो जाती है । हमारे व्यक्तित्व निर्माण के लिए आत्म-निरीक्षण बहुत महत्त्वपूर्ण है और आत्मनिरीक्षण के पांच सूत्रों की संक्षिप्त-सी चर्चा मैंने प्रस्तुत की ।
आत्म-निरीक्षण के दो सूत्र और हैं। एक है-अपने आचरण, व्यवहार का अनुभव करना । उस पर ध्यान केन्द्रित करना और दूसरा है—अपने शरीर और मन में घटित होने वाली घटनाओं का अनुभव करना । जब हमारा मस्तिष्क आत्म-निरीक्षण के द्वारा जागरूक होता है, तब क्या विचार आने वाला है और कौन-सी भाव-तरंग पैदा होने वाली है यह तत्काल पता चल जाता है । आजकल पश्चिम में अपनी वृत्तियों पर कंट्रोल पाने के लिए. Marathisis का प्रयोग करते हैं । उससे पता लगा लेते हैं, तापमान कितना हैं, कौन-सी वृत्ति काम कर रही है। उस मशीन से पता लगता है और फिर अभ्यास के द्वारा उस वृत्ति पर नियंत्रण करते हैं । हमारे यहां तो यह पद्धति पहले से ही रही है । हमें बायोफीडबैक का प्रयोग करने की जरूरत नहीं । ध्यान की गहराई में जाकर हम ऐसा जागरूक भाव विकसित कर लेते हैं । हमें तत्काल पता लग जाता है कि कौन-सी वृत्ति जागने वाली है । तत्काल फिर उस वृत्ति पर नियंत्रण पाने की क्षमता हो जाती है । क्रोध उतरने वाला है, अभिमान उतरने वाला है, उद्दण्डता उतरने वाली है, वासना उतरने वाली है, भय उतरने वाला है, आलस्य उतरने वाला है। कौन-सी तरंग अब मस्तिष्क में सक्रिय हो रही है, तत्काल पता लग जाएगा और पता लगा तो आप तत्काल उस पर नियंत्रण पाने में सक्षम हो जाएंगे। यह एक उपाय है अपने व्यक्तित्व को सर्वतोमुखी और शक्तिशाली बनाने का । मैं सोचता हूं ध्यान के द्वारा हम आत्म- निरीक्षण की विधा में आगे बढ़े, अपनी चेतना को जागरूक बनायें, सक्रिय बनायें, इतनी कर्मण्य बनायें, इतनी सक्षम बनायें कि बाहर की घटनाओं का आकलन भी कर सकें और भीतरी घटनाओं का आकलन भी कर सकें । भीतर और बाहर — इन दोनों जगत् की घटनाओं का आकलन कर अपने यथार्थ के धरातल पर यथार्थ का जीवन जी सकें, यही हमारा लक्ष्य है ।
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