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________________ आत्म-निरीक्षण २६. फर चिकित्सा । स्वयं का निदान और फिर स्वयं की चिकित्सा । यह 'उपाय की खोज' दूसरा सूत्र है-अपने व्यक्तित्व के निर्माण का या आत्म-निरीक्षण का। उपाय खोजे जाते हैं और मिल जाते हैं। कुछ भी असम्भव नहीं। यह न माने कि उपाय खोजने वाले कोई आकाश से टपकते हैं या धरती से निकतते हैं । हर आदमी में क्षमता होती है । अगर वह एकचित्त, दत्तचित्त होकर अपने अपाय के लिए उपाय को खोजे तो उपाय मिल जाएगा। शरीर-प्रेक्षा सबसे अच्छी प्रक्रिया है उपाय खोजने की। हमारे शरीर में कितने प्रकम्पन होते हैं, कितनी हलचलें हैं ! पूरा शरीर हलचलों से भरा है। एक इतना बड़ा कारखाना चल रहा है। हम कभी ध्यान नहीं देते। पता नहीं चलता । यदि ध्यान दें तो पता चलेगा कि एक मांसपेशी पर सूई चुभो दी, इलेक्ट्रोड लगा दिया और मशीन में इतनी तेज आवाज होने लगी। अभी हम मानसिंह मेमोरियल हॉस्पिटल (जयपुर) गये थे, इसी शिविर के सिलसिले में । हमने देखा न्यूरोलॉजी के डॉक्टर बैठे हैं। एक बीमार आया । मांसपेशी पर सूई चुभोई और थोड़ा-सा हिलाया। मशीन में गड़गड़ाहट की आवाज होने लगी। हमारे शरीर में आवाजें होती हैं। तेज आवाजें होती हैं । हृदय की धड़कन, रक्त की गति, रक्त की आवाज । प्रत्येक अवयव अपनी क्रिया करता है। उसके साथ ध्वनि होती है और शब्द होता है, हलचलें होती हैं । पर हम ध्यान नहीं देते, इसलिए पता नहीं चलता। जब आत्मनिरीक्षण की मुद्रा में बैठते हैं और अपने ध्यान को दूसरों से हटाकर अपने भीतर ले जाते हैं तो सारा पता लगने लग जाता है कि भीतर में क्या-क्या हो रहा है। वह एक उपाय है जागरूकता को बढ़ाने का, एकाग्रता को बढ़ाने का और अपने व्यक्तित्व को गतिशील बनाने का । जो व्यक्ति अपने प्रति पूरा जागरूकता नहीं होता, वह दूसरे के प्रति भी पूरा जागरूक नहीं रह सकता । जागरूकता का प्रारम्भ हमारे इस शरीर से होता है, मस्तिष्क से होता है । आलस्य का प्रारम्भ भी हमारे मस्तिष्क से और हमारे शरीर से होता है । प्रमाद और अप्रमाद, मूर्छा और जागरूकता--दोनों का प्रारम्भ इस शरीर और मस्तिष्क से, हमारे नाड़ी-संस्थान से होता है । जो अपने नाड़ी-संस्थान के प्रति, अपने मस्तिष्क के प्रति भी जागरूक नहीं है वह अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक कैसे बनेगा? हम इस भ्रम में न जायें कि ध्यान किसी साधक के लिए है । पुरारी बात है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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