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एकला चलो रे
तो यथार्थ का बोध लुप्त हो जाता है । अभी-अभी कुछ दिन पहले मैंने पढ़ा था, एक युवक ने एल० एस० डी० का प्रयोग किया। दसवीं मंजिल पर बैठा था । उसे लगा कि वह बिलकुल हल्का हो गया है। पक्षी जैसा हो गया है । आकाश में उड़ सकता है । आकाश में उड़ने का प्रयत्न किया खिड़की से । परिणाम जो होना था, वही हुआ । उड़ा तो नहीं, दसवीं मंजिल से नीचे आकर गिरा और मर गया ।
मूर्च्छा से यथार्थ का बोध लुप्त हो जाता है । यथार्थ की चेतना समाप्त हो जाती है । सही बात का पता नहीं चलता ।
हमारे आत्म-निरीक्षण का पहला सूत्र होगा - यथार्थ का बोध, यथार्थ का मूल्यांकन | मनोविज्ञान में कहा जाता है—Self Ratting (सेल्फ रेटिंग ) आत्म-मूल्यांकन, अपना मूल्यांकन सही होना चाहिए। बहुत बार ऐसा भी होता है कि अपना मूल्यांकन सही नहीं होता तो दूसरे के द्वारा भी मूल्यांकन कराया जाता है । कभी-कभी स्व-मूल्यांकन और पर मूल्यांकन दोनों को संयुक्त करके भी मूल्यांकन किया जाता है । पर मूल्यांकन जरूरी है । जो व्यक्ति अपनी सफलता-विफलता का कोई अंकन नहीं करता, वह बहुत प्रगति नहीं कर सकता और उसका व्यक्तित्व बहुत प्रभावी नहीं हो सकता । आत्मनिरीक्षण का पहला सूत्र है - यथार्थ - बोध, यथार्थ मूल्यांकन । जब पता चल जाता है कि ये कमियां हैं, ये विशेषताएं हैं तो फिर दूसरी बात प्राप्त होती है कमियों को मिटाने और विशेषताओं को बढ़ाने के लिए उपाय की खोज की जाए ।
उपाय की खोज अवश्य हो । उपाय और अपाय दोनों जुड़े हुए शब्द हैं । अपाय हमारी प्रगति में बाधक तत्त्व हैं । ये बाधा उत्पन्न कर रहे हैं । ये दोष हैं । उन अपायों को मिटाने के लिए उपायों की खोज होती है । जो व्यक्ति उपाय को नहीं खोजता, जो जितना है उसमें सन्तोष मान लेता है वह प्रगतिशील नहीं हो सकता और विकास नहीं कर सकता । जो लोग आगे बढ़े हैं, जिन्होंने प्रगति की है वे सदा अपाय को मिटाने के लिए उपाय के खोजते रहे हैं। बीमारी जान लेना एक बात है और बीमारी को मिटाने के - लिए उपाय को खोजना दूसरी बात है । यदि बीमारी को मिटाने का उपाय नहीं खोजा जाता तो कोई भी चिकित्सा पद्धति विकसित नहीं होती । जितनी चिकित्सा पद्धतियों का विकास हुआ है, सब उपाय की खोज में हुआ है बीमारी आयी और उसे मिटाने का उपाय खोजा गया। पहले निदान और
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