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मानसिक संतुलन
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आकर उसने कहा कि एक भीड़ आ रही है, जाने क्या होगा ? बहुत भय दिखाया, बहुत डरावनी बातें कीं । आचार्यश्री ने एक ही उत्तर दिया – बहुत सुन्दर ! चारों शब्दों का उत्तर - चिंता नहीं, चिंतन करें । व्यथा नहीं, व्यवस्था करें । व्यथा करना अलग बात है और व्यवस्था करना अलग बात है । चिन्ता करना अलग बात है और चिन्तन करना अलग बात है । चिन्ता नहीं, व्यथा नहीं । चिन्तन हो और व्यवस्था हो ।
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कि वह चिन्तन भी चिन्ता बन जाये । हर
।
पर चिन्तन भी इतना न हो बात की दुनिया में सीमा होती है उस सीमा को समझना और उस सीमा का उपयोग करना बहुत जरूरी है । मानसिक संतुलन के लिए चिन्तन को भी सीमित करना आवश्यक है और यह एक प्रयोग है - श्वास का, जिससे चिन्तन के चक्के को भी हम रोक सकते हैं। जिस समय आप श्वास लेते हैं, श्वास में ध्यान केन्द्रित होता है । विकल्प समाप्त होता है, विचार समाप्त होता है, चिन्तन समाप्त होता है । श्वास का अभ्यास करते-करते भी ऐसा लगे कि विचार बीच में ज्यादा आ रहे हैं तो एक अभ्यास करें कि श्वास को बीच-बीच में रोक दें। जैसे ही श्वास का संयम हुआ, श्वास को रोका और कदम विचार शांत हो जाएंगे। विचारों को शांत करने का बहुत अच्छा उपाय है – कुम्भक |
दूसरा उपाय एक और भी किया जा सकता है
है
ज्यादा उठ रहे हैं तो जीभ को स्थिर कर लें। दांतों के साथ गहरा दबा दें। जीभ स्थिर होती अपने आप स्थिर हो जाता है । जीभ का और सम्बन्ध है |
तीसरा उपाय यह भी कर सकते हैं कि जीभ को उलट लें तालू की ओर । तालू की ओर जीभ को उलटते ही विचारों को प्रवाह एकदम रुक जायेगा । ये जो छोटे-छोटे अभ्यास हैं, छोटे-छोटे प्रयोग हैं- ये हमारे चिन्तन को चिन्ता में बदलने से रोकने वाले हैं । और जब चिन्ता नहीं होती तो मानसिक सन्तुलन बराबर बना रहेगा ।
। जब यह लगे कि विकल्प जीभ को जबड़े के नीचे,
तो विचार और चिन्तन विचारों का बहुत गहरा
हमारा चिन्तन, हमारी कल्पना और हमारी स्मृतियां - ये एक सीमा तक तो सभी उपयोगी हैं किन्तु सीमा से पार जब ये चले जाते हैं तो ये भी हमारे लिए कष्टदायी बन जाते हैं । इसीलिए तो यह कहा जाता कि दुनिया में कुछ भी अमृत नहीं होता और कुछ भी जहर नहीं होता । मात्रा अमृत होती है
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